राजेश चौधरी जी के यहाँ से 'नया ज्ञानोदय' और 'तद्भव' मांग कर लाया.वैसे बता दें किताबें-पत्रिकाएँ माँगने-तुंगने में अप्पन उस्ताद हैं.लौटने में भी अव्वल ही समझो.सोचता हूँ यह साल सिर्फ बेहतरीन लिखे गए को पढ़ने के नाम ही रहे.किताबें लेने-देने और उन्हें कहीं लिखने में तो राजेश जी उस्ताद हैं बाकी तो भोले-भंडारी हैं.अपने स्वास्थ्य को लेकर इतना सतर्क आदमी मैंने पहले कभी नहीं देखा.कब ओट्स खाना हैं.कब भुने हुए चने और ज्वार-सोयाबीन मिश्रित आटे की रोटी.कितनी रोटी,कितना घी और कितना तेल सबकुछ निबट का. हर चीज का समय और चार्ट के अनुसार मीनू तय है.घर से बाहर आने-जाने और वापसी में घर पहुँचने के तक नियम हैं.घड़ी सुस्त पड़ सकती है मगर राजेश जी नहीं.सबकुछ ठीक वक़्त पर.कोई आयोजन देरी से शुरू हो तो उनका बदन कसमसाने लगता है.एक और ज़रूरी बात यह कि फोन पर आखिर में 'ओके' और 'बाई' जैसे शब्द उगलने के पहले ही फुनवा काट देने में माहिर हैं.बुरा तो लगता है मगर क्या करें उनके जैसा बच्चा दिल और कहाँ मिलेगा.
बड़े सहज और भले आदमी हैं.इसलिए तारीफ़ नहीं कर रहा हूँ कि आड़े वक़्त में उन्होंने मुझे पचास हज़ार की सहायता बिना व्याज के की थी.वे असल में तारीफ़ के हक़दार हैं.उनकी तारीफ़ इसलिए भी की जानी चाहिए कि उनके जैसा अध्यापक इस सदी में मिल नहीं सकता.एकदम सीरियस टाइप के अध्येता.एक घंटे पढ़ाने के लिए दो घंटे खुद पढ़ते हैं.नए से नया और पुराने से पुराना.जब भी बात होती तीन लोगों की तारीफ़ ज़रूर करते.एक हमारे गुरु सत्यनारायण व्यास जी, दूसरे रेणु दीदी और तीसरे आकाशवाणी वाले लक्ष्मण व्यास जी.वैसे वे कइयोँ के फेन हैं.खुशवंत सिंह कंग से लेकर डॉ.ए.एल.जैन तक.फिलहाल यही हुआ कि हम जिसके फेन थे उसी के फेन निकले राजेश जी.खैर.राजेश जी मेरे लिए एक दुधारू गाय की तरह साबित होते रहे हैं.वे मेरा कहा नहीं टालते.जब ही हरी पत्ती मांगता,थमा देते.शहर में हो रहे जनपक्षधर आयोजनों में खर्चे-पानी के पैसों में तंगाई आती तो वे सहारा बन जाते.यह संस्कार उनमें जाने कहाँ से आए मगर बड़ा गज़ब का संस्कार है.बिना आगे आये पीछे से संबल दना कोई उनसे सीखे.एक बड़ी बात बोलना चाहता हूँ कि वर्तमान सामाजिक परिवेश के रिश्तों में आत्मीयता के नामोनिशान अगर बचे हुए हैं तो राजेश चौधरियों की वजह से.सहज और सरलमना होने के तमाम प्रतिमान राजेश चौधरी सरीखे लोगों की वजह से ही स्थापित हुए होंगे.
एक और ज़रूरी बात राजेश जी के सामने कविताओं का नाम लेते ही वे नाक सिकोड़ते या बाहें ऊंची-नीची करने लगते. उनका मन कथाओं में रमता है या फिर व्यंग्य और संस्मरण में.वैसे व चुनिन्दा कवियों को पढ़ते रहे हैं.हाँ उनके पास कविता संग्रह के बजाय कथा संग्रह और कहानी संकलन ज्यादा मिलेंगे.मुंशी प्रेमचंद से लेकर राजेन्द्र यादव होते हुए स्वयं प्रकाश और रविन्द्र कालिया तक.नवोदित कथाकारों को तो पत्रिकाओं के ज़रिये ही छूते रहते हैं.कथा साहित्य को लेकर उनकी समझ और टिप्पणियाँ काफी हद आधिकारिक होती हैं.पढ़ते खूब हैं मगर लिखने में धाप कर आलसी हैं. डंडे के बल पर लिखवाना पड़ता है. वैसे अमूमन मसिजीवियों को छोड़कर सभी को लिखने में आलस तो आता ही होगा फिर भी. दो लोगों के कहे पर वे चिंता पालकर तय समय सीमा में लिख देते हैं.एक मेरे कहे पर 'अपनी माटी' के लिए दूसरा 'आकाशवाणी' के बुलावे पर लक्ष्मण जी के कहे पर.यों एकदम सीरियस पाठक हैं.दूसरी तरफ गपोड़ी भी हैं.मौक़ा मिलता है तो देर तक गप लगा सकते हैं.उनकी एक ख़ास कमजोरी यह कि सर्दियों में शाम को बाहर निकलने में भयंकर डरते हैं.कभी-कभार तो ऐसा भी हुआ कि इस भ्रम के मारे ही उनके नाक-कान और गले में सर्दी आ बैठी.बेचारे राजेश जी.खैर इन सभी पर भारी उनकी सयानी बातें और म्यूट के माफिक वोल्यूम वाली उनकी हंसी पर जान निकलती है.उनसे मिलकर अपने घर आने के बाद भी वे ही देर तक हमारी यादों में हँसते रहते हैं.क्या खुबसूरत इंसान है चौधरी जी.अल्लाह की गाय के माफिक.कभी बुरा नहीं मानते.उनके साथ रहने में दोनों का अपना आनंद हैं उनका अपने तर्कों पर अड़े रहना उनकी खूबी भी है और हमारी मुसीबत भी.हमें उनसे विमर्श करने के पहले तर्कों से लेस होना पड़ता है.
उनकी अध्यापकी के मद्देनज़र बात करें तो हाँ एक बारी तो उन्होंने अपने सिलेबस को ध्यान में रखते हुए कबीर के कुछ पद चित्तौड़ में स्पिक मैके के आयोजन हेतु प्रवास पर पद्मश्री प्रहलाद सिंह तिपानिया जी को थमा दिए.मुझे आश्चर्य हुआ.एक डिनर के बाद उनसे हुयी विशेष मुलाक़ात में उन्होंने तिपनिया जी से निवेदन भी किया कि अगर संभव हो और आपको अतिरिक्त मेहनत नहीं लगे तो प्लीज आप अगले दिन की प्रस्तुति में ये सिलेबस वाले पद भी सुनाएं हमारे कॉलेज के कुछ बच्चे आपको सुनने आयेंगे.सरकारी कॉलेज में इस कदर अपने बच्चों की चिंता करने वाला अध्यापक मैंने नहीं देखा.ये वही राजेश चौधरी जी हैं जिन्होंने एक बार शायद अपने बच्चों को कहानी सुनाते हुए कहानीकार रमेश उपाध्याय जी से फोन पर बात करवाकर विद्यार्थियों को एक अतिरिक्त अनुभूति भेंट की.व्यंग्य पर शोध करने के बाद लगता है उनके बोलीचाली में व्यंग्यात्मक लहजा इस कदर समा गया है कि जिनसे उनकी पटती है वे जानते ही होंगे कि हास्य-व्यंग्य के वे ठीकठाक सृजक हैं.ज्ञानरंजन जी से लेकर ज्ञान चतुर्वेदी से वे खासे प्रभावित हैं.ढंग के छात्र ढूँढने में हमेशा अपना ध्यान लगाने वाले चौधरी जी कई बार चिंता जाहिर रहे हैं कि अपना इतना पढ़ा हुआ ज्ञान किसे दें योग्य शिष्य जैसी प्रजाति लुप्तप्राय श्रेणी में शामिल समझो.
हाँ तो बात चल रही थी कि नया ज्ञानोदय लाया फिर 'रंग सम्वाद' और 'कला समय' जैसी पत्रिकाओं के भोपालवासी सम्पादक विनय उपाध्याय का लोक गायिका शारदा सिन्हा जी का इंटरव्यू पढ़ा तो 'गेंग्स ऑफ़ वासेपुर' वाले 'तार बिजली से पतले हमार सैंया' की पहचान वाली शारदा जी के बारे में मैंने खुद को कुछ ज्यादा अपडेट पाया.नया ज्ञानोदय नहीं पढ़ता तो जान ही नहीं पाता कि शैलेन्द्र शैल के स्मृति आख्यान में किस कदर ज्ञानरंजन जी का चुम्बकीय व्यक्तित्व उकेरा गया है.रामप्रकाश त्रिपाठी जी ने क्या खूब मस्ती के साथ भोपाल डायरी का हवाला दिया कि हम कमला प्रसाद जी लेकर राजेश जोशी और मनोहर वर्मा को कुछ करीब से जान सके.
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मैं जिनका प्रशंसक हूँ उनमें कर्नाटकी शैली के प्रख्यात गायक टी.एम.कृष्णा जी को भी शामिल समझिएगा.बीते साल एक महाधिवेशन में रात के ढाई बजे कई लोग टी.एम.कृष्णा जी को सुनने को खुद को जगाए रख रहे थे.मैंने उन्हें पहली ही बार में वहीं सजीव रूप से सुना.बाद में कई बार रिकोर्डिंग सुनता रहा.दक्षिण भारत को मैंने जितना समझा स्पिक मैके की प्रस्तुतियों में दक्षिण भारतीय विधाओं से समझा.सुरत्कल,मणिपाल,हैदराबाद और चेन्नई की यात्राओं से समझा. कपिला वेणु जैसी मेहनती कुड़ीयट्टम नृत्यांगना से बतियाते,देखते और विद्वान् गायक डॉ. एम. बालमुरली कृष्णन को सुनते हुए जाना..दक्षिण का अर्थ मेरे अद्दूर गोपाल कृष्णन और यूं. आर. अनंथमूर्ति भी है.धन्य हैं डॉ. एन. राजम जो उत्तर भारतीय शैली में वायलिन बजाती है.शुक्र है अब बहुत कम ही सही मगर कई दक्षिण भारतीय कलाकार दिल्ली और मुम्बई आ बसे हैं.कई कथकली नर्तक जैसे कलामंडलम गोपी, मार्गी मधु, मार्गी विजय कुमार ने मुझे अपने देश से वाकिफ करवाया है.भरतनाट्यम और यक्षगान की तमाम परम्पराएं मैंने देखते हुए अपने दक्षिण हिस्से को जाना है.उत्तर भारत में रहते हुए भी अब मुझे सम्पूर्ण रूप से भारतीय होने का अहसास आ गया है.इतने सारे रंगों वाले हिन्दुस्तान को एक रंगी बनाने की तमाम कु-कोशिशों को हतोत्साहित करना होगा.
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यात्राएं कब क्या दे जाए पता नहीं चलता.जीवन में उपहार कभी भी छिन जाए या मिल जाए कोई ठिकाना नहीं.इस आभासी नेटवर्किंग के जुदा भी एक दुनिया है जिसमें में बीते तीन माह बहुत समय गुज़ार आया.लोगों से मिलना,बतियाना और देर तक उनके साथ पैदल चलना.कुल जमा आनंददायी अनुभूतियाँ रही.इसी सफ़र में राजसमन्द निवासी हाल मुकाम उदयपुर संदीप कुमार मेघवाल से मिला.अब वो हमारा मित्र है,बीते दिनों चित्तौड़गढ़ आर्ट फेस्टिवल में मुलाक़ात हुयी.बहुत सहज और मेहनती.सृजक तो खैर है ही. मॉडर्न पेंटिंग का चितेरा है.भारत सरकार की फैलोशिप पर इन दिनों शोध कर रहा है.बहुत अच्छा छायाकार भी है.उसका व्यवहार और गेट-अप हमें भा गया.और भी मुलाकातें होगी फिलहाल मैं उसका फेन हूँ
जीवन में कलाकारी से ज्यादा इंसानी व्यवहार के मायने हैं.बेहतर इंसान होने की तुलना में बेहतर कलाकार होना कुछ आसान है .वैसे भी ठीक से सोचे तो हम पायेंगे कलाएं एक आदमी को बेहतर आदमी में तब्दिलती है.मौके-मौके हमें जांच भी लेना चाहिए कि इस कला यात्रा में हम अगर बेहतर इंसान होने की तरफ नहीं बढ़ रहे हैं तो मान लीजिएगा कि हमारा काम 'कलापरक' नहीं होकर 'कलाबाजी' ज्यादा है.और हाँ 'कलाबाजी' की लय 'नाटकबाजी' से मिलती है.खैर.फिलहाल दोस्त बनाने का शुक्रिया संदीप.असीम शुभकामनाएं कि चित्रकारी के इलाके में मेवाड़ का नाम रोशन हो.
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