20 मई 2020
बिना नानी के ननिहाल और बिना माँ के पीहर। यह वाक्य सोचने भर से ही हमारे दिल में कितना सूनापन भर जाता है। भतीजों को भुवाजी नहीं मिल पाए और इन गर्मियों की छुट्टियों में ननदें भाभियों से हिलमिल न सकी। पृथ्वी से बच्चे एकदम ही गायब हो चले मानो। सारी हलचल घरों में कैद हो गयी। खेल के मैदान और सरकारी बगीचे एकदम वीरानगी ओढ़कर सुस्ता रहे हैं। एकाएक विश्वास की सीमा के परे घट रहा है सबकुछ। आधे अप्रैल से मई होता हुए जून तक जाने वाले अवकाश ऐसे कि बेटियाँ पीहर न जा सकी और बच्चे मामा के घर न पहुंच सके। महानगर में बसे एकल परिवारों वाले बेटे देहात लौट नहीं पाए। ट्रेनें चल रही हैं मगर भय उनसे भी तेज़ गति से चल रहा है। ‘ससुराल से बेटियाँ नहीं लौट पाई’ यह बताते हुए पिता का गला कई बार भर आया। आम तो पका मगर अमराइयों में उत्साह न दिखा। न आमरस बनाने के लिए कोई पोते-नाती ज़िद करते हैं न मोहल्ले में ब्याह का-सा जमावड़ा लगता है। जो बीते बीस सालों से नहीं रीते ऐसे पोखर का पानी इस बार पैंदे में जा बैठा है। चैत्र प्रतिपदा के बाद से वैसी बहार न दिखी जिसमें जनमानस रम जाए। हम स्थगित यात्राओं के ढेर पर माथा पकड़ शोक मनाने को अभिशप्त हैं। पतझड़ इतना खालीपन ले आएगा सोच नहीं सके। युवाओं के सपनों का सफ़र अचानक आई बारिश में गीले हुए खाँखले की मानिंद बेकार हो गया है। अंदाज़ लगाकर घर से निकलने और मंझिल तक जा पहूँचने के सभी हौसले पस्त हैं।
परिंडे में गला तर
करने के वास्ते आने वाली चिड़ियाँ और छत पर बिखेरी मक्की चुगने आए कबूतर भी ग़मगीन हैं।
मानवता पर आए इस कहर ने सभी के चेहरों पर चुप्पी पोत कर रख दी है। अब हम उतना नहीं
बोलते जितना आज़ाद हवा में चहकते थे। सोचना-विचारना हमारा पहले भी प्राथमिकता में रहा
मगर ऐसी व्याकुलता पहले नहीं व्यापी। सिलेबस से इतर बाल कविता-कहानियों की पुस्तकें
अब भी रखी हैं मगर उनमें बच्चों को अब उतना रस नहीं आता। घर के बुजुर्ग अब पहले से
और कम बतियाते हैं। अधेढ़ उम्र के पति-पत्नी ने पतवार थाम रखी है। नाव नहीं डूबने देने
के भरोसे के साथ दम्पति ज़िंदा रहने का सशक्त अभिनय कर रहे हैं। अचरज यह कि अब कटोरदान
में उतनी ही रोटियाँ बनती हैं जितनी घरभर को ज़रूरी है। मेहमाननवाज़ी के लिहाज से यह
ठहराव और विराम की बेला है। साग-भाजी के नाम पर पाँचेक तरह की दालें हैं और आलू के
साथ सेट हो सकने वाली कुछ लीली तरकारियाँ। बिना बर्फ़ के हिल स्टेशन की तरह हो गया है
जीवन। हम हरे धनिए, टमाटर और नीबू-ककड़ी रहित सलाद के अभ्यस्त हो गए हैं। दोनों वक़्त
आरोगते हुए यह कभी नहीं भूलते हैं कि रोज़ खाने-कमाने वाले दिहाड़ी-मजूर के लिए चुल्हा
कैसे पेश आता होगा। अंधड़ में वे किसकी चिंता करते होंगे जिनके घर है ही नहीं। सामूहिकता
में विचारें तो समस्याएँ उतनी ही नहीं हैं जितनी घर के भीतर सोची-समझी जा रही हैं।
विषयांतर करते हुए
आपको बता दूं कि आज सवेरा ही प्रसिद्द हिंदी लेखक अम्बिकादत्त जी के फोन से हुआ।
तीनेक बरस की मित्रता है। उनका बड़ा स्नेह है। इक्यावन मिनट तक अबाध बात हुई। बोलते
हैं तो फूल बरसते हैं। उनकी बातों के शब्द शब्दकोष से नहीं लोक से होकर मुझ तक आ रहे
थे। अनुभवजन्य लेखक हैं। बीते दिनों उनकी डायरी विधा की पुस्तक छपी। ‘रमताराम का रोजनामचा’।
उनकी कई डायरियों का चश्मदीद हूँ और श्रोता भी। अब तक वे ग्यारह रजिस्टर भर चुके हैं
जिनमें से फिलहाल दो प्रकाशित हुए हैं। बतकही और किस्सागोई का क्या खिलंदड़ अंदाज़ है
उनके पास? आज उनसे रचना-यात्रा पर भी दसेक मिनट बात हुई। चित्तौड़ के नाम पर वे डॉ.
सत्यनारायण जी व्यास को सम्मान देना नहीं कभी नहीं भूलते। दूजे नंबर पर राजेश चौधरी
जी आते हैं, हालाँकि राजेश जी अब स्थाई रूप से जयपुर प्रवास कर गए। अम्बिकादत्त जी
तमाम आग्रह-दुराग्रह से मुक्त हैं और इसलिए ही मस्तमौला और फ़कीर भी हैं। उनकी शागिर्दी
में रहना अलहदा मौसम से लिपटना है। लॉक डाउन और सत्यानाशी कोरोना की घर-वापसी पर मिली
पहली फुरसत में चित्तौड़ दुर्ग और गंभीरी-बेड़च नदियों के संगम पर उनके साथ यात्रा तय
हुई। डायरी विधा पर गुरु की तरह वे असीसते रहे और बातों ही बातों में कई सूत्र थमा
गए। ऐसे ज्ञानवृद्ध से मित्रता नफ़ा ही देती है नुकसान नहीं। घर गूंजाने वाली हँसी के
साथ उन्होंने लगे हाथ कुछ ‘नुगरे के पद’ भी सुनाए। उनकी ज़बान से जो हाड़ौती बहती है
वह बड़ी सरस और सुगम होती है। फोन कई बार लगा कि अब समाप्त होगा मगर किस्से में से किस्सा
निकल आता। इस बीच हम दोनों कोरोना को विस्मृत कर बहुत दूर घने जंगल में चहलकदमी पर
निकल चले थे। यह आज की अतिरिक्त प्राणवायु थी।
दूजा फोन मैंने अपने
संघर्ष के साथी धोलापानी-वासी भाई भोपराज टांक को मिलाया। साल दो हज़ार दो से सात तक
हम पैराटीचर्स संगठन में एकमेक थे। कई धरने-रैलियों और ज्ञापनों में साथ भीगे,
घिसे, हँसे और रोये हैं। कई प्रेस नोट्स हमने अखबारों के दफ्तरों में जा-जाकर बाँटे
हैं। अनगिनत बैठकों की अध्यक्षता हमारे नाम है। ट्रेनों में फ़र्श पर सो कर खूब बार
जयपुर गए। राजधानी की कई सभाओं में खूब लम्बे और यादगार भाषण अपने नाम किए। अभ्यास
इतना हो गया था कि नारे तो नींद में भी लगा आते। संघर्ष में भूखे रहने के भी कई संस्मरण
हैं। हम लगभग एक सी पृष्ठभूमि के हैं इसलिए आज भी अरसे बाद बात करते हैं फिर भी हमारी
फ्रीक्वेंसी तुरंत मेल खा जाती है। खैर, आज उनके देहात से कोरोना की ग्राउंड रिपोर्ट
समझने का साहस किया। टेस्ट के अभाव में आँकड़ों का ग्राफ अब नीचे जा रहा है। लोग हॉस्पिटल
में सुविधाओं के संशय वाली कहानियों से खोफ़ खाए हुए हैं। आदिवासी अंचल में
देहातियों की अपनी अलग धारणाएं पनप चुकी हैं। केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय की शाम
चार बजे वाली दैनिक प्रेस कॉन्फ्रेंस में आईएएस लव अग्रवाल जितनी मेहनत और नफ़ासत
से बोलते हैं वह धोलापानी तक आते-आते रुपए में से दो आना रह जाता है। यहाँ का लोक न्यारा
है। प्रकृति में इनकी अलग औषधियाँ हैं। देश का हेल्थ डेटा बताने वाले ग्राफ और सारणियाँ
यहाँ आकर दम तोड़ देती हैं। पिचानवें फीसदी जनता श्रमजीवी हैं। फैंफड़ों की ताकत का सौ
प्रतिशत इस्तेमाल करते हैं यह लोग। अद्भुत जीवट वाले नागरिक हैं। सर्दी-जुकाम और ताव-बुख़ार
इन्हें उतना नहीं डराता जितना हमें। भाई भोपराज ने अंचल और इसकी जटिलताओं को करीब से
समझने के लिए बुलबुला महादेव आने का न्यौता दिया और बात पूरी हुई।
अंत में आपको चित्तौड़ी आठम की शुभकामनाएं। एक मान्यता के अनुसार आज चित्तौड़गढ़ का स्थापना दिवस है। बसेड़ा में नौकरी है मगर रहता चित्तौड़ में हूँ। दोनों मेरे जीगर के सबसे करीब है। साहित्य के नाम पर डायरियां ज्यादा नहीं पढ़ सका मगर अपने आपसपास को सतत लिख रहा हूँ। भाषा और शिल्प पर महारथ नहीं है। प्रतिभा के बजाय अभ्यास का सहारा लिया है। तत्सम शब्दावली से परहेज़ करता हूँ। साल दो हज़ार छह से सन दो हज़ार सोलह तक पूरा एक दशक आकाशवाणी में उद्घोषक रहते हुए अक्सर आमफ़हम भाषा में स्क्रिप्ट लिखी और बाँची कि अब सरल और सरस शब्दों का आदी हो चला हूँ। संवाद अदायगी की इस विधा में संवेदनाएं दूर तक असर करेंगी यही आस पालकर भाव को शब्दों का आकार दे रहा हूँ। रोज़ाना रात आठ से साढ़े नौ तक डायरी लिखता हूँ और हद से हद दस बजे तक तुरत-फुरत के सम्पादन बाद पाठकों को भेजता हूँ।
कई राष्ट्रीय सांस्कृतिक महोत्सवों में प्रतिभागिता। अध्यापन के तौर पर हिंदी और इतिहास में स्नातकोत्तर। 2020 में 'हिंदी दलित आत्मकथाओं में चित्रित सामाजिक मूल्य' विषय पर मोहन लाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर से शोध।
प्रकाशन: मधुमती, मंतव्य, कृति ओर, परिकथा, वंचित जनता, कौशिकी, संवदीया, रेतपथ और उम्मीद पत्रिका सहित विधान केसरी जैसे पत्र में कविताएँ प्रकाशित। कई आलेख छिटपुट जगह प्रकाशित।माणिकनामा के नाम से ब्लॉग लेखन। अब तक कोई किताब नहीं। सम्पर्क-चित्तौड़गढ़-312001, राजस्थान। मो-09460711896, ई-मेल manik@spicmacay.com
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