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23 दिसंबर, 2010

किले में कविता:-अब अकुलाते है मुद्दे समाज के

किराए के मकान की लम्बी और चौड़ी छत
उजाला पसरता है जहां
किले की ओट से निकले सूरज के बूते 
खैरात में बंटे लड्डू सा 
एकदम मुफ्त लगता है
ऐसे में ही पनपते है कई विचार
चाय की चुस्कियों के बीच
जब मध्यम पड़ जाती है घर की चिंताएं
और अकुलाते है मुद्दे समाज के 
कम ऊंची मुंडेर से सटी 
आराम कुर्सी का आराम भोग 
विचार-दर-विचार ओढ़े बैठा रहना मेरा 
देर तलक सोचना
चश्में की डंडी नाक पर अटकाए
याद आता है आज फिर जब 
पुष्य नक्षत्र के अखबारी आलेख असरदार थे 
टी-टेबल खरीदी थी हमने भी पत्नी के कहने पर  
काम आती थी  टाँगे लम्बी करके
एक हुकुम पर चाय बनवाने में बारबार 
कभी ताज़ा अखबार होता था सामने
कभी पुरातन किला शहर का
चोला बदलती रंगीन खबरें तक चुभती थी
आँखों को जाने क्यूं 
खुरदरा किला मगर सुहाता था
 निरुत्तर हूँ आज भी 
हाज़री रजिस्टर के मानिंद नामों से अटे पड़े अखबार
 खबरें ढूँढना मुश्किलभरा काम था
चार-चार कॉलम की चौरी-चकारी,
ह्त्या और बलात्कार के बीच
कब तक साँसे लेता आखिर 
एकलौते कॉलम में ढेर
साहित्य,कला और संवेदनाओं का आलम 
छपता था पहाड़ सा किला तक
 महीने भर में एकाध बार कहीं 
पन्नों में आता था नज़र 
किले का कोई हिस्सा 
वजूद ही क्या उनका 
जो छपना चाहते है मगर कैसे 
जो हज़ूरिए भी न बन पाए
नौकरशाहों और साहबजादों के 
सांप सा मुड़ावदार  किला भी 
ब्याह की पंगत सा सीधा लगता था
 और जमा-जमाया अखबार भी उबड़-खाबड़ 
बेखबर थी दुनिया एक बड़ी खबर से कि
कम ही बचे थे पेड़ किले पर अब
और इधर
सिद्धांतवादी पत्रकार से जीव लुप्त प्राय लगने लगे 
जिसका रोना जो ही रोए
किसे है फुरसत दूजे की
मटमैली इमारतें किले के 
अधनंगे पहाड़ों पर 
खुद ही रोती थी एक ओर
दूजी ओर खबरों के चौलों से खफा 
कागज़ बिलखता था आकर मेरे हाथों में 

(ये रचना चित्तौडगढ के किले को अपने घर से सुबह सवेरे निहारने की आदतवश मन में उपजे विचारों पर आधारित है ) 

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