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02 जून, 2011

रात

(1)

सूरज की अठखेली और यहीं 
भोर के उठान से 
दिन देहरी तक आया
चलती रही 
घंटे,मिनट और सैकंड की
सुइयां टिकटिक करती लय में 

गोधूली सांझ को लांघे बगैर
सूरज डूबा थककर 
पसीने से तरबतर
धीरे-धीरे सरकता हुआ
बिखेरकर रंग लाल आखिर
चला गया
देकर सत्ता
चुपचाप चाँद के हाथों
आदत-सा बिना बदले

इंतज़ार पूरती हम सब का 
आई रात तब जाकर 

(2)

ओ रात ज़रा सुनो
कभी अंधेरी कभी उजाली
ओढ़नी ओढ़ भान्त-भान्त की 
आती रोज मेरे गाँव
कभी चांदनी काँधे पर डाले 
कभी बाँध दुपट्टा मखमली 

सोचते है हम गाँव के निठठल्ले
निकाल कर फुरसत थोड़ी
फुरसत जहां 
करवटों के बीच थाल खाती नींद
तुम्हारा ही तो दिया उपहार है 


है शांति का बचाकुचा आलम
वो भी तेरी ही देन लगता है
कभी लगता है 
तेरी ही सूरत ओढ़कर
बैठे हैं ये मूंहबंद लोग गाँव के
शोषित होकर भी निशब्द 

कभी यहाँ तो कभी वहाँ
फलांगती हो तुम कितना
कितना कुछ बदल जाती हो
आते-जाते उपजती फेरबदल 
एक बात पूछूँ तुमसे
क्या तुम भी आलस नहीं खाती
कभी माँ की तरह
चलती रहती हो सतत
डोलती-फिरती हर रोज़

(3)

तेरे आने से गाँव सो जाते हैं
और किसान खेतों पर जा
फसल सींचने डट जाते है 

कस्बों की कहना मुश्किल है थोड़ा
कोई जागता,कोई सोता यहाँ
मिजाज़ सभी के यहाँ बदले हुए हैं
कुछ जमे हुए तो कुछ उखड़े हुए हैं
कुछ बड़े घर के-से महानगर है 
जो सोते नहीं तेरे आने से अब
नहीं जागते हैं तेरे जाने से वे 

सारी परिपाटियाँ बिगड़ती सी लगती है
यहाँ आकर कहीं कोई लम्बी ताने सो रहा है
कोई पढ़ाकू किताबों-कोपियों के पन्ने
फड़फड़ाकर नंबर टटोल रहा है
कोई तेरे अँधेरे के आसरे तिजोरियाँ खोल रहा है

हेरफेर का सारा जीवन 
दिखता यहीं कुछ अगल-बगल
बड़ी दया है तेरे खातिर मन में मेरे 
कि रात तुम अकेली हो 
तुम क्या-क्या जानो करतूतें 
कहीं अँधेरे में बस्ती बिलखती
और तनी हुई कहीं उजाले में इमारतें
तुम एक अकेली क्या-क्या जानो

(4)

हर घर की
छत,आँगन और गलियों में पसरी हो
सच बताओ ओ रात
आज ज़रा तुम बैठो मेरे पास
जानती होगी तुम तो सारी कहानियों का
आरम्भ,बीच और समापन
बताओ न मुझको कुछ तो हल्का-फुल्का

कि कौन सोता है दिन की करनी पर
चैन की नींद एकदम बेपरवाह होकर
और कौन है जो जागता है रात-रातभर
पीता हुआ,फूंकता हुआ जीवन
रह-रहकर नींदों में उठता हुआ
वो कौन है 
वो कौन है जिसे नींद नहीं आती आजकल

एक दूजा दीगर प्रश्न लगे हाथ पूंछ लूं तुमसे
जो उतावला है कितने दिन से मन में मेरे कि 
क्या तुम्हे भी दया आती है उन अन्धेरें गांवों पर
या कि तुम भी शहरों से मिली हुई हो आजकल

(5)

भूलकर सबकुछ आगा-पिछा
मैं मिलना चाहता हूँ आज की रात से
जीना चाहता हूँ उसका जीवन खुद
जो कभी जल्दी कभी देर तक चलती है
मनमाफिक उजाला बांटती
मनचाहे रंग भरती है

एकदम मस्त,अपनी मर्जी से अधेरा उँडेलती
हाँ मैं रात की ही बात कर रहा हूँ
जो कभी आधे में ही ख़त्म हो जाती
और कभी आधे के बाद शुरू होती है
वाह गज़ब की मस्तमौला है ये रात  

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