घंटों-घंटों रहा
किले में
किले बने कविताओं
के
तथ्यों की ठोकापीटी
से
छंद रचे कविताओं
के
दुपहरें सेकी कई
दिनों तक
झरोखों से झांकता
रहा
बैठ बरामदे में
बारबार
छंद पूरने को
ताकता रहा
अनुभव,विद्या-सार
समेटा
लिपा-पोता छंदों
को
ऊपर-नीचे भाव
लपेट
सांचों में ढाला
छंदों को
कभी भोर ही
जा चिपका
कभी गोधूली बेला
में
कभी दुपहरें गुन्दता
था
कभी अँधेरे रात
ढले
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