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30 दिसंबर, 2011

मैं और मेरा आकाशवाणी

भाग-एक 
आकाशवाणी जैसी बड़ी और मानक संस्था से बतौर श्रोता मैं सालों से जुडा हुआ था.बचपन में पडौसी के नामी-गिरामी कंपनी के रेडियो सेट पर हम सिबाका-बिनाका सुना करते थे. मैं अपने पिताजी से यही कहा करता था , वो गीत लगाओ जिसमें बेन्ड-बाजे बज रहे हों..कुलमिलाकर रेडियो मेरे जीवन में बहुत गहरा पैठा था.गाँव की पृष्ठभूमि के वासी रहे,जहां टी.वी. बमुश्किल गाँव में तीन या चार ही थे.उस दौर की तरह आज भी पापा को समाचार सुनने और ठीक ऐनवक्त अपनी घड़ी की चाबी भरने का शौख है.रेडियो को अपने तकिये के आसपास रखने और सुनते हुए ही रात की ग्यारह तक सो जाने के दिन भूला  नहीं हूँ.मुझे नहीं मालुम प्रसार भारती कब आया या इसके आने से रेडियो में क्या बदलाव आये.मुझे तो आज भी वही एस.टी.सुनाई पढ़ती है जो सालों से सुनता रहा हूँ.हाँ आज भी जब अमीन सयानी जी की आवाज़ गूंजती  है तो बचपन ताज़ा हो जाता है.ये अलग बात है उनके आसपास की कुछ और आवाजें मेरे दमाग में बैठने लगी है.अमीन जी जैसी लरज़ती आवाज़ के साथ हमने के खेतों पर लहसुन बोई है.कई पहाड़ों में बेर खोजते हुए  वक्त गुज़ारा है. हाँ सीताफल खोजते वक्त भी रेडियो कांख में लटका रखे हम कितना इतराते थे.उस दौर में रेडियो भी कम ही लोगों के पास हुआ करता था..पिताजी जब भी रेडियो खरीदते उसका कवर ज़रूर लाते थे.कैसे भूल सकते हैं वे दिन जब रेडियो के लिए पिताजी बेटरी(सेल)बदलते वक्त एक पुराने के साथ दो नए डालकर काम चलाना नहीं भूलते थे.ये उनका अपना अंदाज़ था जिस पर वे आज भी कायम हैं.जो कमोबेस कंजूसी से मिलता जुलता अंदाज़ है.हम चाहकर भी उसे बदल नहीं पाए.

बाद के कुछ साल पढाई-लिखाई में गुज़र गए. टी.वी. के प्रभाव में भी रहे मगर गाँव में कभी कभार आती बिजली के भरोसे कब तक अकेले मन बहलाते,लेकर बैठ जाते रेडियो.मालुम कहाँ था,उसी रेडियो से इतना जुड़ाव हो जाएगा. आज भी पिताजी रेडियो में मुझे सुनते हुए मालुम नहीं कितना खुश होते होंगे,कभी उन्होंने कहा तो नहीं.खैर गाँव से बाहर की पढाई  के दौरान भी रेडियो मेरे साथ लटुमता ही रहा. निम्बाहेडा जैसे कस्बे में मेरा मन रेडियो पर गीत सुनते हुए ही रमा रहा.एक दो वर्णों को छोड़ कर कहूं तो आज भी मेरे सही उच्चारण के लिए रेडियो ही ज़िम्मेदार है. या फिर वे गुरूजी जिन्होंने शब्दों को सही उच्चारित करते हुए मुझे पढ़ाया.चुनाव परिणामों के नतीजे सुनते हुए मौहल्ले की चर्चाएँ मानस पर आज भी साफ़ उतरती है.ये तमाम बातें उन्नीस सौ नब्बे के आसपास की है.

भाग-दो 
मैं आकाशवाणी चित्तौड़ को साल दो हज़ार छ; में बतौर आकस्मिक उदघोषक जुड़ा था. साल दर साल अनुभव और रूचि बढ़ती गयी.मोबाईल में ऍफ़.एम्.कल्चर आने से इसमें एक जान आ गई है.सबसे बड़ी बात इस प्रसारण में हर भान्त के श्रोताओं का ख़याल रखा जाता है.

अगला भाग यहीं ज़ल्द लिखूंगा........

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