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31 जुलाई, 2012

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कोई सी भी जयंती और पुण्यतिथि हो मेरा हड़माला(ठीकरिया) इन अफवाहों/आयोजनों से लगभग अछूता ही रहता है। पूरी बस्ती में एक भी अखबार नहीं आता। कुछ गिनेचुने पढ़ाकू लोग स्कूल में आधी छूट्टी  के वक़्त आ पन्ने पलट लेते हैं। बस्ती में मेरा रोज़ का एक ट्यूर लगता ही है। कवेलू वाली छत,भींत मंडे मांडने, हेंडपंप , पनघट की आवाजें, नंगे-पुंगे बच्चे, पो पर पानी पीती गाय-भैंसे, सहसा पाँव के पास से उड़ते हुए गुज़रते / कुकराते मुर्गे यहाँ के असली आलम को रचते हैं। यहाँ के लोग खेती-बाड़ी  के अलावा बाकी दुनिया को कम जानते हैं गोया ये रफ़ी साहेब कौन हैं?, लन्दन ओलम्पिक में गगन नारंग ने किस स्पर्धा में कांस्य जीता ?  उन मुंशी प्रेमचंद से तो दूर तक लेनादेना नहीं है जिन्होंने इनकी पीड़ा को खूब लिखा है। हाँ उन्हें पास की निम्बाहेड़ा मंडी के बाज़ार भाव पता है। उन्हें ये पता है कि  गाँव में कंट्रोल की शक्कर, केरोसिन, गेंहू और खाद के कट्टे कब बांटे जायेंगे। हाल हुए सर्वे के बाद राशन के कूपन कब बनेंगे ? इस पर उनकी पक्की नज़र है। इस बात पर उनके कोई  विचार नहीं है कि आज किन दो बड़े आदमियों के स्मरण का दिन है।

बस्ती में एक गुर्जर परिवार है। ठेठ गाँव के बाहरी छोर पर। कुछ पक्के मकान कुम्हारों और मालियों के हैं। बाकी कच्चे और अधपके झोंपड़ों में भील बसर करते हैं। चंद परिवार जटिया जाति  के भी हैं। यही है यहाँ का जातिगत गणित। कुम्हारों, मालियों और गुर्जरों में आपस में जीमण  का व्यवहार कायम हैं। भील जीमने तो जाते हैं, मगर को-जात के आदमियों को जानकर के बुलाते नहीं हैं। उन्हें मालुम हैं लोग आयेंगे नहीं। यहाँ ए.पी.एल. कम, बी.पी.एल. ज्यादा हैं। कुछ बचेकुचे परिवार अन्त्योदय की लिस्ट में सूचीबद्द हैं। अधिकाँश के पास एक-दो बीघा ज़मीन से ज्यादा नहीं हैं। चुनिन्दा के पास बैल और गाड़ी है। बाकी का काम बकरियों और मुर्गों से चलता है। नरेगा की मजूरी तो इनका भी आख़िरी हथियार है ही। अंडे और बकरे खरीदने वाले व्यापारी यहाँ रोजाना आते हैं। एक दिन छोड़कर यहाँ फटे-पुराने वाला आता है और कपड़े बेचती खटीक जाति की  कुछ मेहनती औरतें बारी बारी से पांतरे आ जाती है। हल्का-फुल्का काम घर बैठे हो जाता है। बाकी अक्सर लोग शम्भुपुरा उर्फ़ टेशन की तरफ जाते हैं। लोग खुश हैं। आपसी झगड़ें यहाँ भी होते हैं। यहाँ भी पुलिस से लोग डरते हैं। यहाँ भी दारु पी जाती हैं। यहाँ भी बच्चे शाम होते ही टी.वी. के सामने इकठ्ठे हो धारावाहिकों पर टूट पड़ते हैं। दूजी बस्तियों की तरह यहाँ सबकुछ सामान्य हैं। छाछ में चुरकर रोटियाँ खाई जाती है। लापसी-चावल वार-तेवार बनते हैं।

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