सभी के अपने-अपने घर हैं और अपनी-अपनी दुकानें। कोई भरपेट को तरस रहा है और कोई पेट भरने के बाद भी भूखा। अन्दर की आवाजों को पास फटकता देख कान डरने लगे हैं। इन दृश्यों की खबरों की आहट मात्र से आँखें ही जी चुराने लगी हैं। कितना अजीब लगता है जब आपसी चर्चा में बार बार याद आती हमारी बेहतर परम्पराएं टूटती नज़र आती हैं। नैतिक पतन पहाड़ से ईतराता हों। निष्कर्ष पर पहुंचे बगैर ख़त्म होती गोष्ठियां लगातार पोषण पा जाती हों। दिल दुखता है जब विचारों की जुगाली करते कुछ पेटेन्टशुदा वक्ता और जमेजमाए समारोह सामने से सफल होते गुज़र जाते हैं।
कई मर्तबा वे लोग अचरज के उपहार दे जाते हैं जो आँख में गिरे कंकड़ से पीड़ादायक अखिल भारतीय कवि की श्रेणी में रखे गए हैं। गज़ब बात ये कि वे शमशान से लेकर शादी तक सब जगह कविता पढ़ लेने की हिम्मत लिए पैदा हुए हैं। इसी ज़मीन पर नामचीन अतिथियों के पीछे तयशुदा आयोजनों में तत्कालीन बदलाव तब अखर जाता है जब राष्ट्रगान भी आगे खसका दिया जाए। खैर ये रोना-धोना भी एक परम्परा की मानिंद हो गया है। इसका भी मानो एक नियत अंतराल तय है। मालुम है हमारी बाकी साँसे इसी जमात और मिट्टी के बीच ख़त्म होती लिखी हैं। अफसोस बहुसंख्य का उसी पतन वाले नाले की तरफ बढ़ना है। जो समझते हैं,लिखते-पढ़ते हैं वे आपस में ठसक भरे बैठे हैं। कुछ बेहरे हैं जो सुनने की कसम खा कर घर से निकलते हैं। कुछ वाचाल जिन्हें कोई भी सुनना नहीं चाहता। इन्ही गंभीर हालातों के बीच जीवन तमाम होना है।
बाकी हालात जस के तस। बीते कुछ सालों से स्वयं सेवा और निष्काम कर्म (फ्री फंट की सेवा) की बातें फिजूल लगती है।असली सेवकभाव वाले लोग भी कुछ पैसापसंद लोगों के समाज में अचरज का विषय हैं। तथाकथित रूप से संस्कार और संस्कृति की पोषक इन दुकानों में शास्त्रीय और लोक कलाओं के मायने रत्तीभर भी नहीं रहे। हम हर मौड़ पर बाज़ार के बीच हैं। मुलाकातों और संगतों का एक-एक वाक्य बाज़ार की नज़र से निकल रहा है। ज़बाने खाली लेनदेन समझती हैं। अब मामला वन टू वन का हो गया है। 'समाज' सिरे से गायब हो गया है। सच कहूं आदमीयत तलाशना बेहद मुश्किल भरा काम हो गया है।
आज की डायरी में बहुत गरिष्ठ हो गया ना। क्या करें डायरी लेखन के वक़्त बेकग्राउण्ड में ही जब पंडित कुमार गंधर्व अपना गला खेंखार रहे थे ,शोभा गुर्टू और गिरजा देवी जैसी विदुषी कलाविद 'बाबुल मोरा नैहर छूटो ही जाए' आलाप रही थी , आप ही बताएं चिंतन की मुद्रा में डूबने के सिवाय कोई कहाँ जाएगा भला। ख़ास कर जब पूरा दिन बिना ईद मुबारक किये गुज़र जाए। जब बेमेल आयोजन के बुलावे पे बुलावे आये। जब तबियत नासाज हो। और तब भी जब अल्लाह ने अंतर मन में झाँकने की हिम्मत बक्श दी हो। परिणाम के रूप में अन्तोगत्वा करेले की जात वाक्य -उपवाक्य ही तो निपजेंगे ना।
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