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एक कमजोर
परिचय वाला
आदमी हूँ.
कुछ भी बेहतर लिखा नहीं.
अब तक मैंने
कुछ भी सार्थक पढ़ा नहीं.
कहीं छपा नहीं.
छपने को कहीं भेजा नहीं.
कुछ भी
छपने लायक लिखा भी कहाँ हैं मैंने
अब तक
किसी पुस्कार के लिए आवेदन किया नहीं.
सम्मान कभी मिला नहीं.
रसूखात ढंग के हैं नहीं.
जी हजुरी आती नहीं.
मतलब
बेकाम का
और मामूली आदमी हूँ
किसी पुस्कार के लिए आवेदन किया नहीं.
सम्मान कभी मिला नहीं.
रसूखात ढंग के हैं नहीं.
जी हजुरी आती नहीं.
मतलब
बेकाम का
और मामूली आदमी हूँ
(2)
जब भी शाम
के वक़्त
जलती है
दिल के कोने में
कहीं
यादों की ढ़िबरी
और
बातों की गासलेटी चिमनी
हर बार की तरह
के वक़्त
जलती है
दिल के कोने में
कहीं
यादों की ढ़िबरी
और
बातों की गासलेटी चिमनी
हर बार की तरह
मध्यम रोशनी में
नज़र आ ही जाता है
एक पहचाना हुआ
पुराना चेहरा
नज़र आ ही जाता है
एक पहचाना हुआ
पुराना चेहरा
(3)
पक्की बात है
दीवार में
कारीगर ने ज़रूर लगाई होगी
हवेली में
एक खिड़की
बाहर झाँकने को
कौन कहे
कविता
उन भूखो मरते लोगों की
जो खिड़की के उस पार रहते है
उनकी कहानी कौन पहूँचाये
उनकी कहानी कौन पहूँचाये
पेट भरे लोगों तक
फुरसत नहीं मिली जिन्हें
सिटकनी खोलने और
फिर झांकने की उस पार
सिटकनी खोलने और
फिर झांकने की उस पार
कि हवेली के उस पार
दूसरी दुनिया है
रास्ते के दोनों तरफ
कच्चे मकानों की
जहां बसर करता है
जीवन
आसमान पर थूंकने
और धरती को कोसने
की हिम्मत संजोये लोगों का
कई बार कहा
उन्हें
सिटकनी लगी खिड़कियों से
नज़र नहीं आती है
ऐसे कोई बस्ती
बचे हुए लोगों की
पीड़ा
कहाँ दिखाई पड़ती है
उन्हें इस शाही जीवन में
कहाँ उठा पाते हैं
जहमत उधर झांकने की
वे सूट -पेंट में लटके लोग
जो अपने में डूबे
हैं सालों से
खुद में अटके हैं
कहाँ मालुम रहता है
उन घरघूसे आदमियों को
कि
कितने उतावलेपन से सूरज
की बाट जोहते हैं
ये तमाम दिहाड़ी मज़दूर
अनामांकित बच्चे
खाद के खाली कट्टे में
थैलियाँ बीनकर भरते हैं
कानों ठूंसी रुई निकालों
सेठों
खिड़की खोलने की हिम्मत जुटाओ
असल में
ये नजारा सिटकनी खुलने के बाद का है
जो तुम देख नहीं पाओगे
नंगी आँखों से
जहां
फुटपाथ पर कई दर्ज़न लोग
निश्चित हो सोये हैं
पिछली रात को जिया हैं
उन्होंने
जीवन का निष्कर्ष समझ कर
उल्लास में ही
निगल गए बची हुयी साँसे
माफ़ करना इस बार
खिड़की के उस पार
लहराता हुआ समन्दर नहीं है
तुम्हारा मन बहलाने को
यहाँ फकत
फकीरी में जीते
कुछ यात्री हैं
जो जान पड़ते हैं
बुजर्ग और तजुर्बेदार
तुमसे बदला लेने को
लगभग आतुर
बिना खिलोनों के बचपन
हैं वहाँ
और बिना
अंगरेजी की इक्कीसवी सदी
थोड़ा सा
मुश्किलातों से लड़ता हुआ जीवन
है
खिड़की के उस पार
आंतड़िया आग सहित है
कुलबुलाती है
पेट में
दांत भींच कर
गुस्से में
भरभराती है जिंदगियां
कई सारी एक साथ
खिड़की के उस पार
भाई जब खोलो
खिड़की
सड़क की तरफ वाली
ज़रा आहिस्ता और संभल कर
जो अपने में डूबे
हैं सालों से
खुद में अटके हैं
कहाँ मालुम रहता है
उन घरघूसे आदमियों को
कि
कितने उतावलेपन से सूरज
की बाट जोहते हैं
ये तमाम दिहाड़ी मज़दूर
दिन उगे से
किस टीस के साथअनामांकित बच्चे
खाद के खाली कट्टे में
थैलियाँ बीनकर भरते हैं
कानों ठूंसी रुई निकालों
सेठों
खिड़की खोलने की हिम्मत जुटाओ
असल में
ये नजारा सिटकनी खुलने के बाद का है
जो तुम देख नहीं पाओगे
नंगी आँखों से
जहां
फुटपाथ पर कई दर्ज़न लोग
निश्चित हो सोये हैं
पिछली रात को जिया हैं
उन्होंने
जीवन का निष्कर्ष समझ कर
उल्लास में ही
निगल गए बची हुयी साँसे
माफ़ करना इस बार
खिड़की के उस पार
लहराता हुआ समन्दर नहीं है
तुम्हारा मन बहलाने को
यहाँ फकत
फकीरी में जीते
कुछ यात्री हैं
जो जान पड़ते हैं
बुजर्ग और तजुर्बेदार
तुमसे बदला लेने को
लगभग आतुर
बिना खिलोनों के बचपन
हैं वहाँ
और बिना
अंगरेजी की इक्कीसवी सदी
थोड़ा सा
मुश्किलातों से लड़ता हुआ जीवन
है
खिड़की के उस पार
आंतड़िया आग सहित है
कुलबुलाती है
पेट में
दांत भींच कर
गुस्से में
भरभराती है जिंदगियां
कई सारी एक साथ
खिड़की के उस पार
भाई जब खोलो
खिड़की
सड़क की तरफ वाली
ज़रा आहिस्ता और संभल कर
really fine poetry full of realistic approach of life.my heartly best wishes.
जवाब देंहटाएंI am sending my magzine in full so please do the needful,give a beautiful,colourful literary look and load the contents of the magzine.
yours thankfully,
dr.bhoopendra singh
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