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अकेले
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अकेली हथेली
यादों के जंगल में
जाने से डरते हुए
कर रही है इंतज़ार
दूजी हथेली के पास आने का
(2)
उधेड़बुन
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एक जंगल
दिनों से जल रहा है
एकेले
दूर
समुद्र की कुछ लहरें
रो रही हैं
इधर आज़कल नहीं उड़ती
अब उतनी उमंग से
आँगन में तितली
कमरे की दीवार पर
रेंगती छिपकलियाँ
महीनों से वहीं चिपक गयी हैं मानो
अभीष्ट को छोड़कर
तमाम तरह की
डाक लाता है डाकिया
इस कठिन दौर में
सारी प्राथमिकताएं
बार-बार
पाला बदल कर
छिजाती है दिल को
सर्द रातों की गहरी नींद
चाहने वालों की कोट की जेब में रह गयी
सिर्फ करवटें
रह गयी पास हमारे
खुल्ली चिल्लर की तरह
बेवज़ह खनखनाती
(3)
चित्तौड़गढ़
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मैंने
न पद्मिनी को देखा है
न राणा कुम्भा,रतन सिंह को
चर्चा में बने रहे नामचीन की तरह
प्रताप और मेवाड़ सब किताबों में पढ़ा है
देखा नहीं कभी
मुनि जिन विजय सुरी का ताप
और मीरा की प्रगतिशीलता के भजन सुने नहीं
उनके मुख से
हालांकि
जौहर,शाके,और बलिदान बहुश्रुत शब्द है
मेरे दिमाग में प्रतिध्वनित होते बार-बार
चित्तौड़ का अर्थ मेरे लिए
बड़ी दीवार सा दुर्ग है
जिसकी छांव में बसे शहर के
कुछ वाशिंदे बनाते हैं इसे
मेरे खाके में फिट एक मुक्कमल चित्तौड़
सत्यनारायण व्यास,अब्दुल ज़ब्बार
शिव मृदुल,रमेश शर्मा सरीखी संज्ञाएँ
बहुत अर्थवान है मेरे लिए
पल्लव,कनक,राजेन्द्र,रेणु जैसे नाम
ये मनीषा कुलश्रेष्ट का बचपन है
स्वयंप्रकाश का प्रौढ़ चेहरा है
मेज़र जोशी का अल्प प्रवास
और अनगिनत कलाविदों-लेखकों की क्षणिक आरामगाह
चित्तौड़
बहुत हुआ तो
बीता पंद्रह साल का सफ़र
है चित्तौड़ मेरे लिए
जिसमें एक तरफ
संस्थाओं का आंकलन है मन में
बसा हुआ है
इंसानों की पहचान का एक मानक
कुछ शिक्षाएं है
जो आनंदी लाल जैन से लेकर
ॐ स्वरुप सक्सेना ने सौंपी है मुझे
दायित्व की तरह
बाकी बहुत कुछ बिना काम का है शहर में
मेरे लिए
है यही अर्थ चित्तौड़ का हाल फिलहाल
*माणिक *
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