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07 मार्च, 2013

कुछ नई कवितायेँ-21

Photo by http://mukeshsharmamumbai.blogspot.in/
निरुत्तर
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स्कूल का हेंडपंप
थाले में पड़ी तगारी
हत्थे पर हाथ आजमाता दिनेश्या

इसी बीच इधर से
मेरा एक अचूक प्रश्न
दिनेश्या की तरफ
उस ओर के पीड़ादायक चेहरे  से
नीचे उतरता
मजबूरी में सना लंबा उत्तर

पिताजी नासाज तबियत के साथ
हैं आख़िरी कगार पर
नरेगा में खपती माँ
बूढ़ा गयी है
दो बड़े भाइयों की फैक्ट्री में दिहाड़ी है
ज़रूरी है पिताजी की जगह
गाँव में जूते गाँठना
बहिनों के गौना होने के बाद का घर
आपसे छुपा नहीं है साहेब
चली जाती है भांजी स्कूल
अंतिम बचा मैं
और ढेर सारा काम


गुरूजी आप तो जानते हों ना
घर-गुवाड़ और बकरी-बछड़ों के ख़याल से
आखिर यहीं रूकना पड़ता है मुझे

दिनेश्या के ज़वाब के बाद
आवाज़ आयी तो सिर्फ हेण्डपम्प चलने की


बस मेरे निरुत्तर होने के लिए इतना काफी था
अब मैं उन बच्चों को सोच रहा था जो
रोज च्वनप्राश खाते हैं

पता लगाना ज़रूरी हैं
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लग रहा है
कुछ वक्त बिताना ही पड़ेगा
अकेले

नदी किनारे
या फिर
पहाड़ की किसी ऊंची चट्टान पर
टिके रह कुछ देर

कुछ ना हुआ तो
किसी बूढ़े दरख़्त की छाँव में
लेटकर दो घड़ी
आगे चलने के ठीक पहले
खुद में झाँकना होगा

कि दोस्त 

अब
थाह लगाना बेहद आवश्यक हैं
दूर के निश्चय से ठीक पहले

हाँ अभी
कि कितनी बची है समझ खुद में
अवशेष है कितनी हिम्मत
और सफ़र में कौन साथ हैं हमारे

ज़रूरी हैं पता लगाना
कौन अभिनय में मगन हैं और
हैं कौन हाथ थामे
सच में साथ खड़ा है




सब रूठ गए हैं 
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नदी,पहाड़,जंगल
सब रूठ गए हैं
जबसे दाम चुका दिए हैं सेठों ने

इस जमात की करतूतों ने
फूँका है ज़हर इस कदर 
हरियाती दुनिया में
जड़ों से टूट गए हैं

अब उत्तर दो 
जाएँ कहाँ भला हम ?
जीने की कला सीखने
मथने अपना मन
और 
उमंग खुद में सींचने

लकड़ियाँ बीनने
तेंदू पत्ते अवेरने
चुनने के लिए महुए के फूल
करौंदे,टीमरू,बेर
सब छिन गया है
हमारी बेफिक्री के तरह

माणिक 
अध्यापक 
 
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