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19 जून, 2013

19-06-2013

नदी किनारे के ठेले-खोमचे वाले हो या फिर हॉटल के बेरे, नाव के मल्लाह को ले लो या टेम्पो चालकों को उन सभी का आतमज्ञान इतना तगड़ा होता है कि आपकी सारी पढ़ाई-लिखाई लोह-लख्खड़ के भाव जाए और इनका अनुभूत ज्ञान एक तरफ । एक बात करो तो तीन बात बोलता है।इन्ही प्रेरित करने वालों की जमात में वैष्णों  में कटरा से ऊपर 'भवन' (वैष्णों देवी मंदिर) तक और वापसी में कटरा तक बच्चों को पीठ पर उचा कर लाने-ले-जाने वाले पिठ्ठू भी शामिल समझिएगा।नाम किसी का याद नहीं रहा बस याद रही तो सीखें।शिक्षा याद रखने में नाम कहीं आड़े नहीं आता जनाब।दिखावे की चोंचलेबाजी से दूर ये तमाम लोग आम आदमी के सही प्रतिनिधि दिखे।लगा कि भारत तो इनसे है।

पिठ्ठू का काम करता आदमी अगर सात से दस किलो के बच्चे को कंधे पर उठा ग्यारह किलो मीटर का ऊँचा पहाड़ चढ़ता-उतरता है बदले में सात सौ रुपये लेता है तो कहाँ लूटमार है।आप हाथी की तरह एक टट्टू पर बैठकर चढ़ाई करते हो पीछे उसी टट्टू का मालिक पूंछ में मरोड़े लगाता तेज दौड़ता और दौड़ाता है आखिर में नीचे लाने पर तेरह सौ रुपये लेता है तो क्या मारामारी है।हमारे कुछ नेतृत्व करता तो एसी में बैठने और साइन मारने में ही करोड़ों की हेराफेरी अंजाम दे आते हैं।समय का उपयोग इनसे सीख लो ठालों, यहाँ पिठ्ठू वाला शकूर और रिक्शा वाला रत्तीराम गाँव में फसल बोने के ठीक बाद शहर चले आये हैं।दो बीघा ज़मीन में कितना गुज़ारा चल पायेगा।यहाँ रह कर सात-आठ या हद से हद पंद्रह दिन रहेंगे मेहनत-मजूरी के कुछ रुपये जमा कर फिर गाँव लौट जायेंगे।हाथखरची से ज्यादा उनकी उम्मीद है भी नहीं।घर में बीवी-बच्चे इंतज़ार करते हैं। काश हमारे मुल्क के युवा लठेत इन युवा मेहनतकश साथियों से कुछ तरकीबें सीख लें।

यात्रा नहीं होती तो इन सभी ये मुलाक़ात भी मुनासिब नहीं थी। मुलाक़ात के बगैर जीवन के इस कृष्ण पक्ष से वाकिफ नहीं हो पाते। ज़िक्र करें तो बकौल उपर्युक्त सभी किरदार ''राजनीति एक बाज़ार हो गयी है।पैसा लगाओ,फिर कमाओ।एकदम बिजनस के माफिक।सारे नेतृत्व करता चोर है। ये देश जाने किसके भरोसे चल रहा है कोई नहीं जानता। सभी घर भरने में लगे है साहेब। आदमी, आदमी नहीं 'दूकान' नज़र आता है। आम आदमी का रखवाला खुद आम आदमी ही है भाई।हम तो गाँव में रहते हैं। ज्यादा पढ़के क्या कर लेते,नौकरी और छोकरी ऐसे तो नहीं मिलती है ना।सब जगह पैसा मांगते है, कहाँ है इतना पैसा हमारे पास।बस एक बारगी बाप ने कहा-शहर जा कुछ खा-कमा। बस तभी से सीख लग गयी और अक्कल दाड़ आयी।तीन-चार बरस हो गए इधर ही हैं।कुछ जमा करेंगे फिर शादी बनायेंगे। अभी पहले पैरों पर खड़ा होलें। अभी से बच्चे पैदा करके मरना है क्या।साहब मजबूरी कहो या कुछ भी मेहनत करके खाते हैं कोई चोरी-चकारी नहीं करते हैं।इसीलिए तो रात में नींद आती है।एक बात बोले साहेब गाँव के उन पढ़े लिखों से अच्छे हैं जो बेरोजगार होकर दिनभर मोबाइल पर अंगुलियाँ जमाने में वक़्त गंवा रहे हैं।उनके लिए छोटा काम करना अब इज्ज़त पर बट्टा लगना हो गया।भला हुआ जो हमें जल्दी ही सदबुद्धि आ गयी।''

इतना सुन के हमारा 'आतमज्ञान' जाग उठा।लगा कि हमारे गालों पर कुछ देर पहले ही तीन-चार तमाचे मारकर कोई सहसा गायब हो गया है। भाड़ में जाए ये सारी साहिबगीरी जो दुनियादारी की समझ ना दे सकी।हम 'पढ़ाकू' हो के भी 'अपढ़' ही रह गए।जीवन का सार वे बीस की उमर में थाह गए हम तैंतीस क्रोस करके भी अभी लंगड़ा रहे हैं।हम शाम-सुबह की गणित में अँगुलियों पर बाकी अंगुलियाँ फिराते रहते हैं।वे गरीब बड़े मतिवान हैं जो जानते हैं दिन का हिसाब  दिन तक।रात होते ही दे-लम्बे तान के सोते हैं।किसी बाप के उठाए  नहीं उठते।सेरे की चिंता तो उन्होंने की ही नहीं।वे भले से जानते हैं सवेरा कोई नयी दुनिया लेकर नहीं आने वाला।उनके लिए सूरज, चाँद और सितारे आम चीजों की तरह ही कोई चर्चा बिंदु है।एक हम ही हैं जो बेमतलब की बातों और भसवाड़  में जान अटकाए हुए हैं।बाकी दुनिया का एक बड़ा हिस्सा मस्त नींद का भागी है।एक हम ही है जो थालें खा-खाकर बिस्तर रोंद रहे हैं।

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