आजकल हर सन्डे विविध भारती में सेवारत यशस्वी एंकर युनुस खान और भावमयी आवाज़ की धनी ममता सिंह के संयोजन में साप्ताहिक रूप से प्रसारित कॉफ़ी हाउस की ऑडियो कहानी का इंतज़ार करता हूँ ,डाउनलोड करके सुनता हूँ.मुझ जैसे आलसी के लिए पढने के बजाय इस तरह सुनना आसान है.इन दोनों मित्रों को नहीं मालुम है कि अनजाने में ही सही वे कितने सारे आलसियों की मदद कर रहे हैं.कॉफ़ी हाउस की शुरुआत नहीं होती तो मैं अभी तक ना तो हरिशंकर परसाई जी की 'चिराऊ महाराज' सुन पाता न ही सत्यजीत रॉय की 'सहपाठी'.और तो और सुधा आरोड़ा की 'एक औरत तीन बटा चार', अमरकांत की कहानी 'दोपहर का भोजन' , सियारामशरण की 'काकी', जयशंकर प्रसाद की 'ममता' , महादेवी वर्मा की 'गिल्लू' और भीष्म साहनी की कहानी 'चीफ की दावत' ही सुन पाता।शुक्रिया युनुस भाई और ममता जी.
पढ़ने के नाम पर पहले ही बहुत सी चीजें क्यू कर रख्खी है.रोज़ाना शाम घर की घड़ी में छुटके काँटे के चार औए बड़के के बारह पर आने से लेकर राजेन्द्र सिंघवी जी की घड़ी में छ बजने तक कोचिंग पढ़ता हूँ.उम्र अधिया रही है मगर और भी ऊंची औए नयी-नयी मंझिलें मेरा उद्देश्य बनती जा रही है.वैसे अपने ही साथियों से पढ़ने का आनंद एकदम अलग है.एक घन्टे तक कनक भैया हिन्दी साहित्य का इतिहास पढ़ाते नहीं थकते और दूजे घंटे में राजेन्द्र भैया हिन्दी व्याकरण घोल के पिलाते हैं.दोनों का ओरेशन असरकारक है.दोनों के आते ही क्लास के चालीसेक बच्चे तो आदर की मुद्रा में चुप हो जाते हैं। दोनों बीच-बीच में ज़रूरत के मुताबिक़ गप्प छोड़ते है ताकी पाठकों का मन रमा रहे.
व्यस्तताओं के बीच बहुत सी खबरें अधूरी पड़ी है.एक शाम सैनिक स्कूल में गोटीपुआ नृत्य की प्रस्तुति के बहाने मैंने फिर से अपनी गलाकारी का परिचय दिया।ओडिशा के वे बच्चे क्या कमाल थे.सब के सब दस साल से नीचे मगर काम वयस्कों का.गज़ब के पिरामिड बनाते हैं.उडिया गीतों पर क्या ठुमकते है कि दर्शकों के पास हमारी भारतीय विरासत को सलाम करने के अलावा कोई चारा रहता।एक तो लोकनृत्य ऊपर से उड़िया फिर भी वे तमाम राजस्थानी दर्शक जमे रहे मतलब ताकत अभिनय में थी कि उन्होंने ने सभी को अपने कौशल से अचरज में दाल दिया।इस आयोजन में कॉलेज के कुछ प्राध्यापक टाइप के मित्रों को देख हमारे गुरु और स्पिक मैके चित्तौड़ के अध्यक्ष डॉ ए एल जैन ने चुटकी ली कि कॉलेज के लोग कब से आयोजनों में आने-जाने लगे.वो भी स्पिक मैके जैसी टेड़ी संस्था में। (टेड़ी इसलिए कि इसमें आयोजन और काम का तरीका हमारे समाज के चाल-चलन से एकदम जुदा किस्म का है.)खैर ऐसे अवसर बड़े यादगार बन जाते हैं जब जैन साहेब सहित कंग साहेब, डाकोत साहेब, राजेश जी चौधरी, सुमित्रा भाभी जी, कलकत्ता कन्वेशन से स्पिक मैके में दीक्षित भावना शर्मा , पुराने खिलाड़ी महेंद्र खेरारू ,नए नवेले मगर पर्याप्त रुचिशील और ऊपर से कॉलेज के हिंदी प्राध्यापक महेश तिवारी, कल्याणी दीदी, पाछोंदा वाला मुकेश शर्मा चित्रकार सब साथ मिलकर फोटो खिंचाई रस्में भी लगे हाथ निभाये।एक और बात जोड़कर डायरी ख़त्म करू कि इस समूह में से आधे से ज्यादा ने कलेक्ट्री पर बनने वाले पूर्णिमा के समोसे भी खाए.अनुष्का सहित आठ समोसे के अस्सी रुपये का चुना राजेश जी चौधरी को लगाया।
याद आया आखिर में एक और बात कि हमारे जैन साहेब के घर से लौटते में उन्होंने ने मुझे एक पुस्तक दी 'हिन्दी-उर्दू साझा संस्कृति' जिसके सम्पादक समूह में हैं मुरली मनोहर प्रसाद सिंह,चंचल चौहान,कान्तिमोहन 'सोज' और रेखा अवस्थी।बहुत सारी गलतफहमियों को ठिकाने लगाने वाली पुस्तक है.इसमें बलराज साहनी का लिखा तो एक ही साँस में पढ़ गया.शुक्रिया जैन साहेब कि आपकी दी हर पुस्तक कई बार भारी भरकम होती है मगर ग़ज़लों को लेकर आयी किताबों सहित इस पुस्तक पर मेरा दिल आ गया है.सोच रहा हूँ कि अपनी आदत के विपरीत जाकर इस बार ये पुस्तक लौटाऊँ ही नहीं
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