गुरूघंटाल
बिना दाड़ी बढ़ाए
पहने बिना
भगवा ,श्वेत या
फिर कुछ और बेढंगा लिबास
बिना भंडारा किए
गले में सतरंगी मालाएं अटकाने
हाथ फेरने और आशीर्वाद परोसने
की तरकीबों के बगैर
हम गुरू नहीं कहला सके इस सदी में
मुआफ़ करना हम नहीं जमा सके
अपनी झाँकी
न हम खरे उतर सके
तुम्हारे तेल-मालिश-चम्पी के मापदंडों पर
कभी नहीं कर पाए हम
ज़मीनों पर नाजायज कब्जे
न पाल सके अल्पबुद्धि के जमूरे
एक भी ट्रस्ट पंजीकृत नहीं था हमारे नाम
आश्रम की सोचा ही नहीं शुरू से
असल में ग़लत काम निपटाने का
एक भी मामला दर्ज नहीं हम पर
जाने कितनी कलाबाजियों से रहित थे हम
हाँ हमें बेधती और कम आँकती
तुम्हारी नज़र, अंगुलियाँ और इल्जाम सही है
हाँ वक़्त के मुताबिक़
हम नहीं बन सके गुरू
मतलब वे भी गुरू नहीं थे
जो हमें सींचते रहे मित्रवत बरसों
उनके गुरू होने का तो सवाल ही नहीं उठता
जो जात-बिरादरी-चमचों से आगे की सोचते हों
किसी बेहतर राष्ट्र के लिए ज़रूरी सपना
हमारे गुरू होने में कई अड़चने आड़े आती रहीं
हम जानते हैं हमें नहीं आया
पाण्डाल में जमा भीड़ को बरगलाना
फेरियों, रैलियों, शोभायात्राओं के मुताबिक़
रथों, घोड़ों, हाथियों, ऊँटों को सवारना नहीं आया हमें
शिष्यों से सीधा रिश्ता है हमारा
मठाधीशी नाम की चिड़ियाँ से बेख़बर है हम
याद रख्खी ही नहीं कभी हमारी जनम तारीख
सालाना जलसे कैसे होते और कैसे देते हम
बिचौलियों ,हजुरियों और अर्दलियों को सम्मान
अपने जन्मदिन पर
शुरू से लकीर के फ़क़ीर रहे हम
रहे आखिर तक नाटकबाजी में कमजोर
हमें नहीं आया अफसरों को फाँसना
गप्प हाँकना और कड़ियाँ बिठाना
दूकान की तरह स्कूल चलाना
हमें आखिर तक नहीं आया
शायद इतने कारण काफी हैं
हमारे गुरू नहीं बन पाने के
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(बीते बारह सालों से अध्यापकी।स्पिक मैके आन्दोलन में दस वर्षों की सक्रीय स्वयंसेवा। साहित्य और संस्कृति की मासिक ई-पत्रिका अपनी माटी की संस्थापना। कई राष्ट्रीय महोत्सवों में प्रतिभागिता। ऑल इंडिया रेडियो से अनौपचारिक जुड़ाव। अब तक वंचित जनता, कौशिकी ,संवदीया, कृति ओर और मधुमती पत्रिका सहित विधान केसरी जैसे पत्र में कविताएँ प्रकाशित। कई आलेख छिटपुट जगह प्रकाशित। माणिकनामा के नाम से ब्लॉग और माणिक की डायरी का लेखन। अब तक कोई किताब नहीं, कोई बड़ा सम्मान नहीं। सम्पर्क-चित्तौड़गढ़-312001, राजस्थान। मो-09460711896, ई-मेल manik@apnimaati.com )
बिना दाड़ी बढ़ाए
पहने बिना
भगवा ,श्वेत या
फिर कुछ और बेढंगा लिबास
बिना भंडारा किए
गले में सतरंगी मालाएं अटकाने
हाथ फेरने और आशीर्वाद परोसने
की तरकीबों के बगैर
हम गुरू नहीं कहला सके इस सदी में
मुआफ़ करना हम नहीं जमा सके
अपनी झाँकी
न हम खरे उतर सके
तुम्हारे तेल-मालिश-चम्पी के मापदंडों पर
कभी नहीं कर पाए हम
ज़मीनों पर नाजायज कब्जे
न पाल सके अल्पबुद्धि के जमूरे
एक भी ट्रस्ट पंजीकृत नहीं था हमारे नाम
आश्रम की सोचा ही नहीं शुरू से
असल में ग़लत काम निपटाने का
एक भी मामला दर्ज नहीं हम पर
जाने कितनी कलाबाजियों से रहित थे हम
हाँ हमें बेधती और कम आँकती
तुम्हारी नज़र, अंगुलियाँ और इल्जाम सही है
हाँ वक़्त के मुताबिक़
हम नहीं बन सके गुरू
मतलब वे भी गुरू नहीं थे
जो हमें सींचते रहे मित्रवत बरसों
उनके गुरू होने का तो सवाल ही नहीं उठता
जो जात-बिरादरी-चमचों से आगे की सोचते हों
किसी बेहतर राष्ट्र के लिए ज़रूरी सपना
हमारे गुरू होने में कई अड़चने आड़े आती रहीं
हम जानते हैं हमें नहीं आया
पाण्डाल में जमा भीड़ को बरगलाना
फेरियों, रैलियों, शोभायात्राओं के मुताबिक़
रथों, घोड़ों, हाथियों, ऊँटों को सवारना नहीं आया हमें
शिष्यों से सीधा रिश्ता है हमारा
मठाधीशी नाम की चिड़ियाँ से बेख़बर है हम
याद रख्खी ही नहीं कभी हमारी जनम तारीख
सालाना जलसे कैसे होते और कैसे देते हम
बिचौलियों ,हजुरियों और अर्दलियों को सम्मान
अपने जन्मदिन पर
शुरू से लकीर के फ़क़ीर रहे हम
रहे आखिर तक नाटकबाजी में कमजोर
हमें नहीं आया अफसरों को फाँसना
गप्प हाँकना और कड़ियाँ बिठाना
दूकान की तरह स्कूल चलाना
हमें आखिर तक नहीं आया
शायद इतने कारण काफी हैं
हमारे गुरू नहीं बन पाने के
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'जोधपुर' से प्रकाशित त्रैमासिक साहित्यिक पत्रिका 'कृति ओर' के ताज़ा अंक में अपनी भी कुछ कवितायेँ प्रकाशित हुयी है.मेरी समझ में यही पहली ढ़ंग की पत्रिका है जिसने मुझे छापा है
सम्पर्क
सम्पादक : डॉ. रमाकांत शर्मा -
मो-09414410367,
Saket Villa,Bhrimpuri-Pratap Mnadal,Jodhpur-342006,
ई-मेल-rkra makant.sharma@gmail.com)
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माणिक |
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