चित्रांकन-अमित कल्ला,जयपुर |
यूट्यूब का भला हो कि रात में सोने से पहले हमने प्रेरणा श्रीमाली जी का कथक देखा,बेटी ने अनुकरण किया.रात की लम्बी और अच्छी गहरी नींद के बाद जैसे ही उठे उस्ताद राशिद खान का गाया भजन 'पलना झूले नंदलाल' सुन रहे हैं.हमारा मानना है कि संगीत आपको 'लय' में रहना-जीना और आगे बढ़ना सिखाता है.हालाँकि बदलते वक़्त में 'संगीत' जैसे शब्द का अर्थ भी बहुत तेज़ी से बदल रहा है.फिर भी सार्थक और गंभीर किस्म के संगीत के मायने आज भी क़ायम हैं.भला हो हमारे दोस्तों का जिन्होंने हमें संगीत के सबसे ठीक पहलू के करीब लाया.वरना गफलत में पड़ जाने की प्रबल संभावनाओं वाले इस कलियुग में हम तो मर ही जाते.अभिरुचियों के वैविध्य वाले इस समय में सही रूचि को थाहना और उसके मुताबिक़ किसी विवेकी द्रोणाचार्य को ढूंढकर उनसे सीखना और अंगूठा कटवाना टेड़े कामों की सूची का हिस्सा होना चाहिए.
एक बार की बात है जो कल रात फिर याद आ गयी कि प्रेरणा श्रीमाली जी एक बार सैनिक स्कूल में स्पिक मैके के बहाने कथक की प्रस्तुति देने आयी हुयी थीं.सेवा-चाकरी में हम ही मुस्तैद थे.जनवरी की ठण्ड थी.ठण्ड वो भी चित्तौड़ी ठण्ड.बिजली के कट आउट का दौर था.शायद कोई सुबह के दस बजे प्रोग्राम होना तय था.भागादौड़ी में हम भूल ही चुके थे कि प्रेरणा जी से रात में विदा होते वक़्त ही कहना था कि आप थोड़ा जल्दी उठकर गीज़र का उपयोग कर सकती हैं,बाद में बिजली के अपने संकट हैं.सरकारी फरमान हैं कि दो घंटे बिजले कट आउट ज़रूर हो.हम तनिक डरे भी कि इतनी बड़ी कलाविद को जल्दी उठने की कहे तो कैसे.हमारी आशंका सही निकलाने के हित उन्होंने सवेरे के साढ़े आठ पर कॉल कर ही दिया.मैं,रमेश प्रजापत और एकाध कोई ओर स्वयंसेवक था शायद.सैनिक स्कूल गेस्ट हाउस पहुंचते ही हमने एक जुगाड़ लगाया. पता लगाके मेस पहुंचे, दो बाल्टी पानी कड़ायले में गरम करवाया.एक मोपेड पर पीछे बैठे रमेश ने दोनों हाथों में एक-एक के हिसाब से गरम पानी की बाल्टियां पकड़ प्रेरणा जी के कुसलखाने तक पहूँचाई.मुझे मोपेड चलाना नहीं आता था क्योंकि तब तक मेरी हैसियत और हकीक़त एक साईकल के आसपास ठहरती थी.खैर कहना यह चाहता हूँ कि वक़्त के साथ सेवा-चाकरी उर्फ़ 'स्वयंसेवा' जैसे शब्द अपने अर्थ खोते जा रहे हैं.यह कोई हर दौर के रोने-धोने जैसा नहीं सचमुच की हकीक़त है.स्पिक मैके आन्दोलन जिसने हमारे में 'निस्वार्थ स्वयं सेवा' का कॉन्सेप्ट रोपा,अफ़सोस वह आन्दोलन भी अब अपने क्षरण के साथ ही आगे बढ़ रहा है.कई बार लगता है आगे बढ़ना कोई प्रगति का सूचक नहीं है. जब तक कि उसमें एक विचार न हो,दिशा न हो और गुणात्मक किस्म का भाव न हो. हमारे दोस्त राजेश चौधरी कहते हैं कि माणिक क्षरण तो जीवन के प्रत्येक हल्के में हो रहा है इससे जो जितना बच सके उतना अच्छा.
इसी सेवा की अवधारणा में हमने आईआईटी के प्रोफ़ेसर डॉ. किरण सेठ से सीखा कि कोई काम छोटा और बड़ा नहीं होता.बहुत बाद में जाकर हमारे मगज में ये बात बैठी कि हम किसी आयोजन में सभागार के बाहर जाने-अनजाने लोगों की पगरखियाँ क्यों एक सीध में रखकर उन्हें इधर-उधर सरकाएं.बाद में ही जाना कि एक वोलंटियर कैसे किसी शास्त्रीय नृत्य प्रस्तुति के ऐनवक्त के आपातकाल में अपने ही पहने हुए बनियान को पौछे के माफिक व्यवहार करता हुआ मंच साफ़ कर देता है.सीखने के अनुभव कई बार कड़वे हो जाने की प्रक्रिया से भी गुज़रते हैं.अभी मैं भुला नहीं हूँ वैसे भूल भी नहीं सकता कि ओडिसी का जीता-जागता हस्ताक्षर विदुषी सोनल मानसिंह ने मुझे उदयपुर हवाई अड्डे पर किस कदर डाटा.खैर ग़लती तो मेरी थी ही.अभी तक याद है एक बारगी अपने रहने की व्यवस्था पसंद नहीं आने पर भरतनाट्यम की जानीमानी नृत्यांगना प्रतिभा प्रहलाद ने बहुत गलत-सलत कह डाला.हम बहुत छोटे और यों कहें तो ज्यादा बेहतर होगा कि संस्कारित स्वयंसेवक के परफोर्में में ही बंधे थे.सबकुछ सहते हुए सीखने की आदत पड़ चुकी थी.
खैर इस तरह के तमाम अनुभव मुझे 'माणिक' बनाने में अपनी तरफ से कुछ न कुछ जोड़ते ही रहे. इस बात का अहसास मुझे बहुत बाद के सालों में लग पाया.इस सफ़र में यह भी समझ आ गयी कि समाज और अपनी संगत में खर्च किया हुआ एक-एक घंटा कुछ लेकर ही उठता है.अपनी पसंद के मंचों पर अपने मनमाफिक शीर्षक वाले नाटक खेलने के एक भी अवसर मैंने नहीं खोये.जितना हो सका सुना.देखा.सीखा.साधा और बिना किसी बड़े लाभ के चक्कर में आये वे सभी काम किए जो सीधे तौर पर लाभदायक तो कम से कम नहीं ही समझे जाते हैं.हम बरसों तक ऐसे घनचक्कर बनने में ही सुखद अनुभव करते रहे जो हमें 'माणिक' बनाने में सहयोग कर सकते थे.'सार्थक' बनने की यह यात्रा अनवरत जारी है.शहर के सजग और चिन्तनशील मित्रों के साथ अब तो हिन्दुस्तान में भी इतना बड़ा समूह बन गया है कि मित्रों की संख्या अपार हो गयी है जिनसे मुझे अपनी दिशा तय करने में सहायता मिलती है.यह सारी अनर्गल कही जाने वाली रुचियाँ ही मुझमें 'लय' लाती है.आज सच कहलवाएं तो इसी 'लय' के बूते मैं अपने कदमों को इस उबड़-खाबड़ ज़मीन पर ठीक से रख पाता हूँ.
स्मृतियों में जाने के इस मौसम में कुछ हाल की संगतें भी मुझ जैसे अधूरे आदमी को पूरा करने का मन रखती है.सही और ग़लत की पहचान कराती है.इस तरीके से दिशा देने में वर्तमान का अपना अवदान है.चीज़ों को समझने में 'राजेश चौधरी जी के साथ चित्तौड़ के किले में एक दुपहरी' शीर्षक का एक पाठ भी जोड़ा जाना चाहिए.संगत का वो पाठ जिसे हमने पाडनपोल की एक घुमटी में फीकी चाय पीकर शुरू किया.यहाँ यह लिखना उचित नहीं है कि माचिस किसने जलाई और सिगरेट किसने फूंकी.गिरस्ती की बातों से लेकर हिन्दी साहित्य और फिर चित्तौड़ के इतिहास में गोते लगाते हुए हम मृगवन में ठेठ अंतिम छोर पर बने परकोटे तक जा आए.आते में जैन सात्बीस देवरी के सामने नीबू-जीरा की एक-एक गिलास ने हमें फिर से तरोताज़ा कर दिया.कुल जमा बीस रुपये राजेश जी ने दिए.उस यादगार दुपहरी राजेश जी को कुछ नया मिला हो या नहीं मुझे ज़रूर बहुत सी बातें नईं जानने को मिली और वैसे भी यही राजेश चौधरी से दोस्ती का फलन भी है.कम से कम बात लिखनी है कि जब चर्चा चली कि इस बार गर्मी के लम्बे और सरकारी अवकाश में कहाँ जाओगे? तो राजेश जी ने बड़ा मझेदार प्रत्यूतर ठेला कि वे सोचते हैं उन्होंने बहुत लम्बे समय से भारी मात्रा में कुछ अच्छा और चयनित गंभीर किस्म का साहित्य पढ़ा नहीं है तो वे सोचते हैं इस बार की छूट्टियाँ वे केवल और केवल पढ़ने के लिए बचाकर रखेंगे.उसी के तहत वे दिल्ली पुस्तक मेले के टिकट कटा चुके हैं. एक बार फिर यह बात पुख्ता हो गयी कि संगीत के साथ अच्छी किताबें भी आपमें 'लय' लाती है.
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