एक शाम अगड़ी जातियों के दो शिक्षित मित्रों से मुलाक़ात हुयी बातों ही बातों में हम जाति, दलित विमर्श और ओमप्रकाश वाल्मीकि जैसे विचारोत्तेजक मुद्दे पर आकर बोलने लगे. मतलब आप समझ गए होंगे कि बहस में बड़ा आनंद आया.बहुत सारा समय तो हम आरक्षण के फेर में ही उलझे रहे.फिर आगे बढ़े तो गाँव और शहर में फरक पर जाकर अटक गए. उदाहरणों से ही इस शाम में हमने कई गलतफहमियाँ दूर कर डाली .कई बार आपस में उलझे.एक दूजे को पटकनी दी.बोलने का स्वर कभी एकदम ऊंचा भी हुआ जो स्वाभाविक ही था .मैं इतना बोला की दोनों को चुप करवा दिया.वे बार-बार बहस से भटके भी मगर मैं उन्हें ठीक करता रहा यह तारीफ़ मेरी नहीं भाई मेरे हाल के पढ़े साहित्य की होनी चाहिए कि जब हम लगातार सार्थक और ज़रूरी किताबें और पत्रिकाएँ पढ़ते रहे हैं तभी तो हमारी दिशा और सोच का दायरा और ज्यादा साफ़ हो सका है.वैसे बता दूं कि तथ्यामक होते हुए हम खुद को करेक्ट करते रहे हैं.किसी के गलत पर अंगुली उठाने की हिम्मत जुटा पाए हैं.यूंही हाँ में हाँ मिलाना भुलने लगे हैं.एक बारगी लगा इस शाम में बीते सालों की साहित्यिक मित्रों की संगतें काम आ गयी और इधर मैंने भंवरलाल मीणा द्वारा लिए वाल्मीकि जी के अंतिम साक्षात्कार को पढ़ा ही था.बीते साल की ही तो बात है जब हमने एक आयोजन तो पूरा ही दलित विमर्श पर किया ही था.कौनसा विचार कहाँ काम आ जाए कह नहीं सकते.कुल मिलाकर ऐसे मुद्दों पर हमारी समझ का विकसित होना खासकर तब ज्यादा ज़रूरी हो जाता है जब हम पढ़ाने के प्रोफेशन में हों.
इस गोधुली इतने सारे अनुभव सुना गया कि मैंने कब-कब दलितों की शादियों, मोसरों, नांगलों, मुंडनों में जाजम बिछाई और जीमने का मौक़ा पाया सब के सब.याद आया कि बचपन तो दलित परिवारों के मोहल्ले में ही बीता.वहीं हमारा घर था. था क्या आज भी वहीं है.टीचरशिप के डिप्लोमा की पढ़ाई के दौरान हमने कई बार जातिवादी आग्रहों का टूटना देखा था,जहां सुथार-बामण-तेली-सुनार सब एक ही थाली में रोटियाँ चपेकते थे.उस दौर के जड़बुद्धि मकान मालिकों के लिए वो सीन एक बड़े अचरज से कम नहीं होता था.वहाँ से आज तक मैं चला आया हूँ जहां अब मुझे जाति एकदम अनावश्यक लगती है.मेघवालों के घरों के बीच ही हमारा घर रहा.आमलिया बावजी का देवरा तो सालों तक हमारे खेल-मेल का केंद्र रहा ही.जहां गुर्जरों के माँगी लाल जी भोपाजी हुआ करते थे.याद आता है कि मैं शाम की आरती के वक़्त तो मेरे बचपन के दोस्त रूपलाल मेघवाल के घर जाता था जहाँ उनका अपना देवरा था.उसके पिताजी भोपाजी थे वे आरती उतारते, मैं नंगाड़ा बजाने की कोशिश करता और रूपलाल शंख बजाता था.शंख पर मैंने भी कई बार जोर आजमाया.झालर तो खैर बजा ही लेता था.कभी रामदेव जी बीज होती तो रात के बारह-एक बजे तक तन्दुरे पर निर्गुणी भजन सुनते.मेघवालों के भाटों-चारणों के आगमन पर तो मैं भी स्कूल से भागभुग कर वहीं नगाड़े पर उनके भजन-कीर्तन सुनते.क्या बेफिक्री और अपनापन था उस जातिविहीन माहौल में.
मगर आज सोचता हूँ तो लगता है उन्हीं गांवों में कितना जातिवाड़ा आज भी मौजूद है.तब हमारे घर में नल और बिजली नहीं थी.पिताजी की कंजूसी की आदत के कारण आप देखिएगा किगाँव के भीलों के घरों में भी बिजली आ गयी उसके बाद हमारे घर में कनेक्शन हुआ. खैर यह बात विषयांतर की तरफ ले जाती है.माँ मेघवालों के नल से पानी भरती थी.पिताजी नारायण बा चमार के यहाँ से बकरी का दूध लाते थे.हम स्कूल के बाद के समय में कई बार नारायण बा के बारामदे में ही पड़े रहते थे खासकर जब वे रामायण का पाठ करते हम काना लगाकर सुनते थे.हमारे संगी-साथी बलाई थे, भाम्भी थे, रेबारी थे, गायरी थे, कुलमी थे, गुर्जर थे, चारण थे.एक दो तो भील भी थे हमारे मिलने वालों में.कमोबेश सब के सब पिछड़े वर्ग से सम्बद्ध.खुद के हालात भी वंचितों के समकक्ष ही मानिएगा.
दसवीं से बाहरवीं तक की यात्रा में तो मैं जिस मित्र-मंडली में रहा वहाँ पढाई-लिखाई के साथ जब जहां रोटी-सब्जी-दाल नसीब हो जाती खा लेते थे.सब जात का मेल-मिलाप था. पाटीदार से लेकर मेनारिया,तेली से लेकर आमेटा,तम्बोली से लेकर लखारा.सिंघवी से लेकर माली और कुम्हार तक.नाम के पहले शब्द से आगे सोचने का वक़्त ही नहीं मिला.आज के हालात भी एकदम दिलचस्प है.बीते सात साल से एक अध्यापक मित्र ने मुझे इस डर से अपने नांगल-मुंडन की कंकोत्री नहीं पहुंचाई कि कहीं मैं वहाँ चला गया तो लोग क्या सोचेंगे? बीते कुछ सालों से मुझे जहां तक याद पड़ता है मेरे घर में जटिया समाज के दोस्त के खेत से उपजे गेहूं, उड़द, मूंगफली आ रहे हैं.इन्हीं सालों में हमने बंजारा दोस्त के यहाँ ब्याव के लड्डू खाए, कई हरिजनों को अपनी रसोई तक बुलाया, चाय पिलाई, मित्रता सूची के पक्के वाले दोस्तों में कई सालवी हैं.खटीक हैं, मीणा है मगर मुझे उनसे मिलने और बात करने में याद रखकर भी जाति का ख़याल कभी नहीं आया. खुद ने अपनी जाति लगाना बंद कर दिया.बहुत ज्यादा ज़रूरी ही हो रहा हो तो ही जाति बताता रहा हूँ. सबकुछ याद आ रहा है दाल-बाटी और मक्की की रोटी के साथ उड़द की दाल के कई फटकारे तो हमने दलितों के यहीं लगाए हैं.रेगरों की शादी में खूब नाचे हैं.चमारों के यहाँ परोसकारी का आनंद आज भी नहीं भूले. सब में एक ही परमतत्व है फिर काहे का जातिगत विभेद.गज़ब दुनिया है जहां हम जी रहे हैं.सबकुछ कब सुधरेगा भाई.कबीर कहाँ हैं उनकी बहुत ज़रूरत है.कुछ वर्षों से सर्दियों में हर साल एक बार के दाल-ढोकले तो हम अपने मित्र के यहीं खाते हैं जो दलित समुदाय से आता है.अरे याद आ गया दो साल से हम जिन केरियों का अचार डाल रहे थे वह तो हमारे गोवेर्धन बंजारा के आम की थी. हंसराज, लालुराम, भगवती भैया कितने-कितने दोस्त हैं जिन्हें जानने और पसंद करने में जाति कभी आड़े नहीं आयी. इसी वर्ग के कई अधिकारी हैं जो अव्वल दर्जे के अपडेट और विवेकवान निर्देशक हैं.
यह वाकई सही बात है कि ज्ञान बढ़ने के साथ ही हम जाति,धर्म और समाज के समीकरणों को समझने लगते हैं मगर विवेक के सही दिशा में जाने से ही जात-पात का बंधन ढीलता है.दलित विमर्श में दिशाभ्रमित और तथाकथित ठेकेदारों पर तो खैर ओमप्रकाश वाल्मीकि जी ने भी कई जगह पर चुटकियाँ लेते हुए उनकी गतिविधियों को आड़े हाथों लिया ही है.मगर फिर भी मैंने अपने आसपास भी कई दिशाभ्रमित दलित समूह और साथी देखें हैं.यह सच है कि यह कु-व्यवस्था आज भी गांवों में बहुत अच्छे से कायम है जहां भेदभाव बहुत बड़े रूप में जारी है.इस बात का दर्द कई दिसतों के ज़रिये सुना और देखा भी है.यहाँ तो दर्द यहाँ तक भी है कि 'दलित' वर्ग में आने वाली समस्त जातियां ही अपने आपस में इतनी उलझे हुए समीकरणों के साथ सामने आती है कि दिमाग गच्चा खा जाता है.शहरों में वाकई हालात कुछ हद सुधरे हैं मगर अभी भी कई उदाहरणों में यह जातिवादी नज़रिया बहुत तीखे अनुभवों के साथ सामने आता है.पता नहीं हम अब भी किस संसार में हैं.जहां साक्षरता के आंकड़े बढ़ने के बाद भी लोगों में जातपात का भेदभाव कायम हैं.
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