एक दौर में यहाँ केवल खेत थे। पास का गाँव ही मूल निवास था। वहीं से लोग रोटियों का डबुसा माथे पर ले भोर में आते, शाम ढले तक खेतिहर मजूर बने रहते। मेहनत के बहाने कसरत के पूरे इंतज़ाम थे। आदमी-औरतें सब बराबरी में खोंदते-निन्दते और आगे चलते। समय की करवट के हस्ते बढ़ते परिवार और टूटते घरों ने इनकी हिस्सेदारी में ज़मीन के टुकड़े किये। नालियां संकड़ी कर दी। गलियों में झगड़े उपजने लगे। कहासुनी के दृश्य आम होने लगे। छोटे घरों में बसर और कमतर ज़मीन पर काम करना मुश्किल होता गया। कुछ गाँव का जातिगत गणित जिम्मेदार था। एक धारणा के अनुसार कुछ ने भेदभाव से निजात के एक रास्ते के रूप में नयी आबादी को जन्म देना उचित समझा, और नयी आबादी पैदा हो गयी। ये पैदा होने का सही समय था। जब आपस का तालमेल जवाब देने लगे तो नए रास्ते निकलने ही चाहिए। इस कदर चुपचाप नयी डगर चले ये लोग हमेशा हाशिये पर ही रहे। एक तो गाँव में थे दूजे अब अलग-थलग बस्ती के वासी हो चले। यहाँ निवास करने की अपनी मस्ती और अपनी विलग यातनाएं भी थी।
हर गाँव में एक नयी आबादी होती है जहां अक्सर नीचला तबका सांस लेता है। कमोबेश ये बस्ती भी इन्हीं परिभाषाओं के दायरे में आती होगी। शुरुआत में खेतों पर एक दो झोंपड़े बने। चारागाह की ज़मीन पर पट्टे दिए गए। कुछ नाजायज कब्जे किये गए। अरसे के कब्जों पर पंचायत ने पट्टे भी जारी कर दिए। ये संख्या साल-दर-साल बढ़ती गयी। राजनैतिक दबाव में एक स्कूल खुल गयी। एक मास्टर आया। बच्चे कबाड़े गए। घंटी बजने लगी। लोग जागेंगे ऐसी मुगालता पनपी। अनपढ़ अभिभावक से बहुत सी आशाएं पाली गयी। उन्हें खुद को एक वोटर होने से ज्यादा कुछ बाहर का सोचने के हिसाब समझाये गए। मगर उनके विकास का एक अंदाज़ था। वे अपनी चाल में किसी तरह के घुसपेठ को नापसंद करने वालों में थे। फलत: वे अपने ढर्रे पर ही चले। पाठशला का अवतरित होना बच्चों के मन लगाने का एक नया शगल बना। जीवन में कुछ खुली हवा की सी आमद हुयी। चौड़े-चौड़े मकान, खुला आहाता, लंबा आँगन, गोबर समेटती बड़ी-बड़ी रोड़ीयाँ, दे-लम्बी पशुशालाएं। कोई जातिगत टिक्का-टिप्पणी नहीं। एक आरामदायक ज़िंदगी। यहाँ नयी आबादी बहुत से मायनों में उन दबे-कुचले लोगों के हित एक नया जन्म साबित हुआ है। लोकतंत्र का चुटकीभर आभास। लगा कि इनके भी कोई दुनिया है।
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