कविता, कवि ह्रदय आदमी के ज़िंदा होने का प्रमाण है जिसमें वह अपने होने के सबूत के साथ जीवन के अनुभवों को बारीकी से देखते हुए समाज के मद्देनज़र अपना लेखकीय हस्तक्षेप करता है.कविता न सीखाई जा सकती है न सीखी जा सकती है.यह हूनर अपने आप आता है,जब आप समकालीन बड़े रचनाकारों को पढ़ते हैं तो यह तमीज़ अपने आप आती है.चंद्रकांत देवताले तो यहाँ तक कहते हैं कि ''मैं आदमी होने कवि होने में फ़र्क नहीं करता हूँ.'' वैसे कवि होना आदमी होने से बड़ा काम नहीं है बस एक अतिरिक्त जिम्मेदारी का काम है.कवि सहित तमाम सृजनधर्मी हमेशा व्यवस्था के विरोध में माने जाते हैं.क्योंकि वे व्यवस्था की कमियां इंगित करते हैं यथास्थितिवाद को बढ़ावा देना एक रचनाकार का काम नहीं है.कविता लिखे जाने का कोई सार्थक उद्देश्य होना बेहद ज़रूरी है.कविता में बाहरी लय से ज्यादा आतंरिक लय होना बेहद ज़रूरी है जो उसे आनंद के साथ पढ़ने में हेल्प करती है.मुकम्मल कविता बन जाने से पहले की मशक्कत भी किसी प्रसव पीड़ा सरीखी होती है.जब कविता के सही मायने समझ आने लगते हैं तो कविता लिखने की बारम्बारता कम हो जाती है.एक कविता का कई अर्थों में राजनैतिक होना ज़रूरी है.कविता की कोई सीधी परिभाषा देना मुनासिब नहीं है.कविता हथियार नहीं है तो कविता का होना अर्थ नहीं रखता है.कविता आनंद नहीं देती वह झकजोरती है.शब्दों से कलाकारी कविता नहीं हो सकती है.सनद रहे 'कवि' और 'मदारी' दो अलग-अलग शब्द हैं.
05 जनवरी, 2014
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