माणिक |
वक़्त का धुंधलका
लोक के आकाश पर
अब सांझियाँ कहाँ सजती है
फूल-गोबर से
आँगन की दीवार से पीठ सटा
गीत गाते अब नहीं खिलखिलाती है
वे दो चोटी वाली लड़कियाँ
मुहल्ले में अब यहाँ
अणची बाई गीत नहीं उगेरती
रतजगे में आखी रात
माँ जबरन
रोटी के कोर नहीं देती अब मूंह में
न पिता कान उमेठते हैं
लाडलों के इन दिनों
लाडलों के इन दिनों
धुंधलके में बहुत कुछ छूट गया है
हमारी मुलाकातों के दौर की तरह
जहां तुम्हारा कहा
पूरा पहुँचता था मेरे कानों तक
पूरा पहुँचता था मेरे कानों तक
फिसलन की इस घड़ी में
छूट जाए अगर
देश,बोली,भाषा और संस्कार भी
रह जाए पीछे
तो अचरज मत करना।
---------------------------
गुंजाईश
गुंजाईश दिखी है हमें
अक्सर जीवन में
गलतियों ,माफियों और संवादों की
जड़ी रहती है जैसे
एक खिड़की रिश्तों की दीवार में
रूठने,मनाने और आवाज़ लगाने को
न होती अगर ये गुंजाईश
तो कब के खो चुके होते हम
अपने माँ-पिताजी सहित बहन-भाई
हाथों से निकल जाते सारे रिश्ते
मिट जाते बमुश्किल बचे
रंग-राग और रिवाज़ जीवन के
हाँ मिले हैं
तमाम लंगोटिया दोस्त फिर से
संवादों की इसी गली में
गुंजाईश जो रखी बाक़ी हमने
हरियाली ठूँठ हो जाती
हमारे खेत, पेड़ और पहाड़ों की तरह
अदबभरा जीवन खो जाता
अगर न रहती गुंजाईश
पीछे मुड़ पलभर ठिठकने की
-----------------------
अच्छी कविताएँ
अच्छी कविताएँ बचाकर रखना
कवि सम्मेलनों से दूर
किसी इज्ज़तदार संगोष्ठी में बाँचने के लिए
अपनी ही इज्ज़त बचाने की तरह
अच्छी कविताएँ मौक़ा कहाँ देती हैं
तालियाँ पीटने का
वे रुलाती है हँसाने की जगह
चुटुकले नहीं होती अच्छी कविताएँ
गोष्ठी की जाजम समेटते-समेटते
ज़रूर थमा जाती है अपने हाथ
कोई तीने-क मुद्दे मानवता के
अच्छी कविताएँ उतनी सीधी नहीं होती
दिखती है भोली सिर्फ दिखने में
अर्थ दूसरा ही होता है उनका
पहली बार में लगाए अर्थं से एकदम अलग
देर और दूर तक दाद दिलाती नज़र आती है
अच्छी कविताएँ
अक्सर दिखने में कालीकलूटी
और सुनने में कर्कश लगती है
इसीलिए राय दे रहा हूँ
कि बचाकर रखना अच्छी कविताएँ
बारिश में आग लगाने को
भटके को राह दिखाने को
काम आएँगी अकेले में वक़्त बिताने कोछूट जाए अगर
देश,बोली,भाषा और संस्कार भी
रह जाए पीछे
तो अचरज मत करना।
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गुंजाईश
गुंजाईश दिखी है हमें
अक्सर जीवन में
गलतियों ,माफियों और संवादों की
जड़ी रहती है जैसे
एक खिड़की रिश्तों की दीवार में
रूठने,मनाने और आवाज़ लगाने को
न होती अगर ये गुंजाईश
तो कब के खो चुके होते हम
अपने माँ-पिताजी सहित बहन-भाई
हाथों से निकल जाते सारे रिश्ते
मिट जाते बमुश्किल बचे
रंग-राग और रिवाज़ जीवन के
हाँ मिले हैं
तमाम लंगोटिया दोस्त फिर से
संवादों की इसी गली में
गुंजाईश जो रखी बाक़ी हमने
हरियाली ठूँठ हो जाती
हमारे खेत, पेड़ और पहाड़ों की तरह
अदबभरा जीवन खो जाता
अगर न रहती गुंजाईश
पीछे मुड़ पलभर ठिठकने की
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अच्छी कविताएँ
अच्छी कविताएँ बचाकर रखना
कवि सम्मेलनों से दूर
किसी इज्ज़तदार संगोष्ठी में बाँचने के लिए
अपनी ही इज्ज़त बचाने की तरह
अच्छी कविताएँ मौक़ा कहाँ देती हैं
तालियाँ पीटने का
वे रुलाती है हँसाने की जगह
चुटुकले नहीं होती अच्छी कविताएँ
गोष्ठी की जाजम समेटते-समेटते
ज़रूर थमा जाती है अपने हाथ
कोई तीने-क मुद्दे मानवता के
अच्छी कविताएँ उतनी सीधी नहीं होती
दिखती है भोली सिर्फ दिखने में
अर्थ दूसरा ही होता है उनका
पहली बार में लगाए अर्थं से एकदम अलग
देर और दूर तक दाद दिलाती नज़र आती है
अच्छी कविताएँ
अक्सर दिखने में कालीकलूटी
और सुनने में कर्कश लगती है
इसीलिए राय दे रहा हूँ
कि बचाकर रखना अच्छी कविताएँ
बारिश में आग लगाने को
भटके को राह दिखाने को
(बीते बारह सालों से अध्यापकी।स्पिक मैके आन्दोलन में दस वर्षों की सक्रीय स्वयंसेवा। साहित्य और संस्कृति की मासिक ई-पत्रिका अपनी माटी की संस्थापना। कई राष्ट्रीय महोत्सवों में प्रतिभागिता। ऑल इंडिया रेडियो से अनौपचारिक जुड़ाव। अब तक परिकथा, वंचित जनता, कौशिकी ,संवदीया, कृति ओर और मधुमती पत्रिका सहित विधान केसरी जैसे पत्र में कविताएँ प्रकाशित। कई आलेख छिटपुट जगह प्रकाशित। माणिकनामा के नाम से ब्लॉग और माणिक की डायरी का लेखन। अब तक कोई किताब नहीं, कोई बड़ा सम्मान नहीं। सम्पर्क-चित्तौड़गढ़-312001, राजस्थान। मो-09460711896, ई-मेल manik@apnimaati.com )
अच्छी कविताएं बचाए रखना.....काम आएंगी अकेले में वक्त बिताने को...बारिश में आग लगाने को...भटकों को राह दिखाने को.....हाँ मानिक जी...यूं ही आती रहें अच्छी कविताएं...शुभकामनाएं मेरी...दिल से...।
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