लिखने के बाद कविताएँ
रख दी है
भक्कारे और परेण्डे से उतरे हांडे में
पकने को कुछ दिन
आम और सीताफल पकाने की मानिंद
लपेटकर पुराने कपड़ों में
टटोलना नहीं चाहता हूँ अब उन्हें
बचपनिया हरक़तों की तरह
हर शाम नहीं देखता हूँ
कि कितनी पकी है अब तक
कच्चे पेमली बोर की-सी कविताएँ
अब शर्म नहीं आती मुझे
कविताओं का कच्चापन स्वीकारने
नुक्ते,मात्राएँ और चन्द्रबिन्दु सुधारने में
पंक्तियों के बीच का जोल
थाह लेता हूँ पहले दूसरे पाठ में ही
कविता के मुकम्मल मुकाम तक
करता हूँ ठोकापीठी
झाँकता हूँ जीवन में बार-बार
सोचता हूँ देर तक आँखें मूंदे
अंदर तक उतरता हूँ कई बार
फिर गड़ता हूँ कविता की ऊँचाई
नहीं करता कलाकारी और अठखेली शब्दों की
न तुकबंदी में अटकता है अब मन मेरा
समझ गया हूँ कि
कविता लिखना, झाँकी जमाना नहीं है
कविता, तालियाँ बटोरने का जतन तो बिलकुल भी नहीं
मालुम है कविता हँसाती नहीं
ये भी मालुम है कि कविता चुटकुला नहीं होती
कविता, आदमी के कच्चेपन से बाहर आने का दस्तावेज है
फिलहाल कच्चा हूँ अपनी कविताओं की तरह
इच्छा है कि ठीक से पककर ही तोड़ा जाऊँ
किसी डालपके अमरुद की तरह-----------------------
मुश्किल रास्ते पर
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राजस्थान में रहता हूँ मैं
भीतर राजस्थान बस जाने के बाद भी
जगह बचाकर रखता हूँ हमेशा
मुज़फ्फरनगर और कोलकाता के लिए
हँसना जानता हूँ
पहाड़ों,पेड़ों और पक्षियों के बीच
जब भी होता हूँ हँसता हूँ
रोना मेरे लिए हूनर का होना नहीं है
रोना आया है जब-तब
रोया है मेरा राजनादगाँव, देवगढ़ और बैतूल
आँखें लाल हो जाती है गुस्से में मेरी
नारे उछालने लगती है ये ज़बान
दीवारों पर पोस्टर चिपकाने
लेई बनाने में जुट जाते हैं दोनों हाथ
बुद्धि भाषण गड़ने लगती है
विवेक बैठक की जाजम में पड़ी सलवटें ठीक करने लगता है
इस तरह
जब भी जलती है तुम्हारी बस्ती
जब भी जलती है तुम्हारी बस्ती
उदास होता हूँ मैं भी
समझने का एक ओर सरल तरीका
कि मैं और तुम एक ही हैं भाई
कि मैं और तुम एक ही हैं भाई
गोया
तुम्हारे शहर की तरह ही
यहाँ भी ठीक उसी वक़्त
बढ़ते और उतरते हैं
पेट्रोल, डीज़ल और सिलेंडर के दाम
वे तमाम लोग एक ही हैं
एकदम हमारे विरुद्ध
अच्छे परिणामों और मुश्किल रास्तों के बीच
रोड़े अटकाते हुओं की तरह
भाई
तुम राजधानी में निकालते हो रैली जब भी
तुम राजधानी में निकालते हो रैली जब भी
मैं यहीं से जी-भर गालियाँ बकता हूँ तख़्त को
खर्चीली कोरट-कचेरी और वकीलों के बीच
जब-जब भी तुम्हे न्याय मिला और
लफंगों से मिली निजात तुम्हें
यहाँ गाँव में मैंने भी बँटवाए हैं
जलेबी और गुड-भूंगड़ेसन 2000 से अध्यापकी। 2002 से स्पिक मैके आन्दोलन में सक्रीय स्वयंसेवा।2006 से ऑल इंडिया रेडियो,चित्तौड़गढ़ से अनौपचारिक जुड़ाव। 2009 में साहित्य और संस्कृति की ई-पत्रिका अपनी माटी की स्थापना। 2014 में 'चित्तौड़गढ़ फ़िल्म सोसायटी' की शुरुआत। 2014 में चित्तौड़गढ़ आर्ट फेस्टिवल की शुरुआत। कई राष्ट्रीय सांस्कृतिक महोत्सवों में प्रतिभागिता। अध्यापन के तौर पर हिंदी और इतिहास में स्नातकोत्तर।
प्रकाशन:मधुमती, मंतव्य, कृति ओर, परिकथा, वंचित जनता, कौशिकी, संवदीया, रेतपथ और उम्मीद पत्रिका सहित विधान केसरी जैसे पत्र में कविताएँ प्रकाशित। कई आलेख छिटपुट जगह प्रकाशित।माणिकनामा के नाम से ब्लॉग लेखन। अब तक कोई किताब नहीं। सम्पर्क-चित्तौड़गढ़-312001, राजस्थान। मो-09460711896, ई-मेल manik@apnimaati.com
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