नमस्कार
'हंस' और 'नया ज्ञानोदय' की बात कर रहा हूँ.ये दोनों पत्रिकाएँ पहले डाक से रेगुलर घर आती थी.फिर सदस्यता शुल्क ख़त्म हो गया तो बंद हो गयी.बीच में छूट सी गयी.बीते दिनों अजमेर जाते वक़्त चित्तौड़गढ़ रेलवे स्टेशन पर बुक स्टॉल पर अग्रवाल जी मिले.'हंस' खरीदी.पूछा तो बातों में पता चला चित्तौड़ जैसे छोटे शहर में 'हंस' और 'नया ज्ञानोदय' की पांच से दस प्रतियांं वे मंगवाते हैं.ग्राहक को वाट्स एप से सूचना दे देते हैं.पत्रिका अमूमन बारह तारीख के आसपास आ जाती है.दोनों अच्छी पत्रिकाएँ हैं.पत्रिकाओं की इतनी कम मांग से आप शहर के छोटेपन का अंदाज़ लगा सकते हैं.हमें साहित्य के पाठक बढ़ाने चाहिए.एक मुहीम के तहत ही सही.
कुछ सार्थक और गंभीर पढ़ेंगे तो अपनों के बीच अलग पहचान बना पाएंगे.बाकी अख़बार पढ़ लेना ही पढ़ा लिखा होने की या खासकर अध्यापक होने का अंतिम दायित्व मान लेने वालों के साथ मेरी सहानुभूति है.हाँ अग्रवाल जी का नंबर दे रहा हूँ उनसे संपर्क करके अपना नंबर दे दें, वे पत्रिका के आने की सूचना आपको दे देंगे.उनका नंबर 9414497911है.
हमारे कई साथी कहा करते रहे हैं कि जिन घरों में एक ज़माने में हिंदी की गंभीर पत्र-पत्रिकाएँ आती थी उन्हें सभ्य घर माना जाता था.अब घर में इस तरह के रिवाज़ का सत्यानाश हो चुका है.क्या हम फिर से पढ़ने और गुनने की रवायत लौटा पाएंगे.क्या हम फिर से कम से कम एक या दो साहित्यिक पत्रिकाएँ घर लाने की एक नयी इच्छा पाल सकते हैं ?सोचिएगा. आप महीनेभर में गैर अकादमिक साहित्य सामग्री के नाम पर पढ़ने के लिहाज से कितना खर्च करते हैं? या कुछ भी खर्च नहीं करके केवल कोर्स की किताबें पढकर नौकरी पर चले जाते हैं.क्यों स्कूलों में पढ़ रही युवा पीढ़ी का सत्यानाश कर रहे हैं.विद्यार्थी आपसे कोर्स के अलावा भी बहुत आस करते हैं.बाकी पास होने के लिए बाज़ार ने उन्हें कुंजियाँ,पासबुकें और वन वीक सिरिजें दे रखीं हैं.चेत जाओ वरना बच्चे समझ गए कि गुरूजी के झोले में कुछ नहीं है तो वे स्कूल छोड़ देंगे और आप देखते रह जाएंगे.
आदर सहित माणिक
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