आरक्षण पर टिप्पणी:
साहित्य और कला से जुड़े वाट्स
एप ग्रुप में भी आरक्षण को लेकर बहुत सार्थक बहस संभव है। यह कई बार अनुभव हुआ।
लोगों को समझाना कई बार मुश्किल हो जाता है कि साहित्य भी एक तरह की राजनीति ही
होती है। हम लोग जाने क्यों राजनीति से इतना डरते और भागते क्यों हैं? जिस साहित्य
की कोई राजनीति नहीं होती वो लुगदी साहित्य होता है। खैर तो हम बहस आरक्षण पर कर
रहे थे। आरक्षण पर यह बहस भले अंतहीन हो मगर जब ऐसी बहस चलती है तो हमारे भीतर का
जातिवाद बाहर आने लगता है। बहस खुलकर होनी चाहिए। निश्चित रूप से आरक्षण एक बड़ा
मसला है। हमने बीती चौदह अप्रैल को चित्तौड़गढ़ में एक पैनल चर्चा रखी थी। चीख चीख
कर बुलाने पर भी तीस लोग इकठ्ठे हुए थे। असल मामला यह है कि हम बात तो करना चाहते
नहीं। अपने अपने तय किए हुए खांचों से बाहर निकल कर संवाद करें हो सकता है और मेरा
मानना है कि संगत करने बहस करने के बाद हमारी राय बदल जाए।
दलितों और दलित आन्दोलन में
भी हज़ार कमियाँ हो सकती है मगर उनकी अधिकाँश मांगे एकदम वाजिब हैं। ओबीसी की तरह
एससी और एसटी में भी क्रिमिलियर आना चाहिए यह बात कहने वालों पता होना चाहिए कि
ओबीसी का आरक्षण आर्थिक पिछड़ेपन के साथ ही सामाजिक आधार पर कमज़ोरो को दिया गया था जबकि बाकी दोनों आरक्षण जाति आधारित
है। जब तक हमारे दिमाग में भंगी-चमार चलता रहेगा तब तक यह आरक्षण जारी रहेगा। हाँ
यह अपेक्षा उन सक्षम दलितों से भी की जाती है कि अगर बहुत सुविधाजनक हालात में कुछ
दलित पहुंच चुके हैं तो उन्हें खुद ही अपने ही वर्ग के बाकी ज्यादा वंचित
लोगों के लिए आरक्षण छोड़ना चाहिए।
हमारे जीवन की हर गतिविधि
जब राजनीति से तय होती है तो बताइएगा क्यों हम राजनीति में हिस्सा नहीं लें। राजनीति
बहुत गंदी चीज़ है कहकर घर में कूलर की हवा खाने की आदतों ने ही हमें यहाँ लाकर खड़ा
किया है। जागरूक बनिए। हर संवाद का हिस्सा बनिए। गांधी, नेहरू, भगत सिंह भी जीवन में
इंजिनियर, डॉक्टर और वकील बनकर गिरस्ती चलाने के ही सपने देख रहे होते और
राजनीति में नहीं उतरे होते तो हम अगले सौ साल और अंग्रेजों के गुलाम रहते।हमारे
बड़े और जानकार दोस्त हमेशा यही कहते हैं कि खूब पढ़िए और अपनी राय को दुरस्त करते
रहिएगा। एक सी राय के बीच बने रहना कीचड़ हो जाना है। वही साहित्य पढ़िएगा जिसका कोई
एक पक्ष हो। दिशा हो। दिशाहीन शब्दजाल में फंसना ही आपकी फितरत हो तो मुबारक हो। आकाश
खुला है। यह सबकुछ उपदेश नहीं है। यही सब मुझ पर भी उतना ही लागू है। जितना पाठक
पर।
मैंने तय किया है कि मैं अपनी
बेटी को ओबीसी का लाभ नहीं लेने दूंगा। मुझे लगता है कि मैंने इस आरक्षण से नौकरी
पायी है भले मेरे दादेरा और नानेरा में मैं पहले सरकारी नौकरीशुदा हूँ मगर अब मुझे
ठीक हालत में आ जाने के बाद यह लगने लगा है कि मेरी बेटी के बड़े होने पर इस एक पद
पर किसी और वंचित को लाभ मिलना चाहिए। आपने शायद कभी जाना हो इस देश में एक
संविधान है सबकुछ उसके मुताबिक़ ही हो रहा है। आप लोग बहस चलाने के बजाय संविधान
बदलवाने की कोशिश करिएगा नहीं तो हमारे बीच का आपसचारा और ज्यादा गड़बड़ हो जाएगा। आपस
में जाति देखकर ही बिफर पड़ने से कुछ नहीं होगा। यह एक तरह अंतहीन लफड़ा बन आएगा। मैं
पहले भी भी कई बार कह चुका हूँ कि हम जातिसूचक नाम देखते ही उन पर ब्राह्मणवादी
होने का आरोप जड़ देते हैं। ब्राह्मण अलग है और ब्राम्हणवाद एकदम अलग कोंसेप्ट है। अब
समय बदल रहा है। सारे सवर्ण को एक ही सूची में रखना भटकाव की तरफ जाना हो जाएगा। और
सारे दलितों को भी एक तरह का और अप्रगतिशील मान लेना भी गलत ही होगा। हम सभी में
भीतर तक सुधार तक की बहुत गुंजाईश है। आपको जानना चाहिए कि इस देश में आरक्षण केवल
सरकारी नौकरियों में है और कुल नौकरियों का सरकारी नौकरियाँ केवल दस प्रतिशत ही है।
बाकी नब्बे प्रतिशत निजी क्षेत्र में किस एक ख़ास वर्ग के मालिकों का दबदबा है और
कितना अघोषित आरक्षण वहां कायम है? यह किसी से छिपा नहीं है। आंकड़ों पर आधारित बात
करें तो ज्यादा सटीक असर डाल पाएंगे।बी बहस के बीच में वाट्स एप ग्रुप छोडकर चले
जाना बहुत ही आसान कदम है। मैं भी पहले बहुत असहज होकर ग्रुप तक डिलीट कर देता था।
मगर अब तथ्यात्मक बात करने की कोशिश करता हूँ। यह सभी मेरे व्यक्तिगत विचार हैं
आपको इनसे असहमत होने की और अपने आपको व्यक्त करने की पूरी लोकतांत्रिक आज़ादी है। आरक्षण
को समझना हो तो छोटे छोटे उदाहरणों से समझिएगा। आपको जानकार आश्चर्य होगा कि इतनी संवैधानिक
सुरक्षा और प्रोत्साहन के बावजूद इस देश में दलितों की हालत बहुत ज्यादा अच्छी
नहीं है। निश्चित रूप से इस वर्ग की अपनी सामाजिक कुरीतियाँ भी जिम्मेदार है। मगर
संविधान हमेशा समाज के समग्र का सपना देखता है। एकांगी विकास का नहीं।
आरक्षण ख़त्म करने के पक्ष
में मैं भी नहीं हूँ। यह एक साधारण इच्छा है कि बस एक कलेक्टर अपना आरक्षण छोड़ेगा
तो वो इस तरह अपने ही वर्ग के किसी दलित का भला करेगा। क्या यह कभी संभव होगा? अगर
समझ में आए तो यह बहुत सीधा गणित है। अक्सर जब भी आरक्षण पर बहस चलती है तो आपको
पता होगा सबसे पहला प्रश्न होता है एक ही क्षेत्र के एक ही प्रकार के ज़मीदार टाइप और
अब लगभग सपन्न घरों से इतने सारे प्रशासनिक अधिकारी फिर भी इन्हें इलाके के लोगों को आरक्षण का
लाभ जारी है। हम आरक्षण ख़त्म करने के पक्ष में नहीं है मगर सच यह भी है कि ऐसे
प्रश्नों का जवाब देना कभी कभी मुश्किल हो जाता है जबकि हम खुद आरक्षण के बहुत
ज्यादा पक्षधर हैं। खैर अब दलितों ने अपने आपको अभिव्यक्त करना शुरू कर दिया है। अब
वे इस आरक्षण के सहयोग से धीरे-धीरे मुख्यधारा में लौट भी रहे हैं। कई उदाहरण हमने
हाल ही में देखें होंगे जब कई दलित प्रतियोगी परीक्षाएं टॉप कर रहे हैं। यह अच्छा
संकेत है। हम यही सपना देखेंगे कि दलितों और वंचितों को ऐसी तमाम सुविधाजनक
स्थितियां मिले कि उन्हें पढ़ने-लिखने के मुनासिब अवसर मिलें और वे बिना आरक्षण के
सहारे मुकाम पाएं। कई बार तो डॉक्टरी और इंजीनियरिंग में आरक्षण से प्रवेश तो मिल
जाता है उस पर लोग आरक्षण विरोधी कई लतीफे बनाकर वायरल करने शुरू कर देते हैं। अरे
भाइयो, कभी उन गंदी गलियों और बस्तियों में बचपन गुजार कर देखो, फिर कहना आरक्षण
ख़त्म होना चाहिए। लड़कियां सुबह झाडू लेकर बस्ती साफ़ करने पर मजबूर हैं और दोपहर
में स्कूल जाती हैं और फिर आप कहते हैं; आरक्षण ख़त्म होना चाहिए। प्रतियोगी
परीक्षा में बैठने वालों का जब तक सामाजिक स्तर एक सरीखा नहीं होगा तब आरक्षण जारी
रहना चाहिए। आपने आदिवासी मीणा लड़कियों का बहुत कम प्रतिशत पर नौकरी लगना आँख में
आता पढ़ा होगा, कभी आपने सोचा वो लडकी स्कूल जाने के लिए रोजाना दस किलोमीटर पैदल
चलकर जाती रही। इस आभासी दुनिया से बाहर आओ साथियों। अधिसंख्य दलित और वंचित बहुत
असाधारण स्थितियों में जी रहे हैं। कुछ दलितों की अच्छी और आरामदायक स्थिति को अधिसंख्य
का नमूना मत मान लीजिएगा। यह बड़ा मसला है यहां सेम्पल सर्वे से काम नहीं चलेगा। कभी
एकाध सप्ताह गाँव गुवाड़ में बीता आओ। हो सकता है इन वंचितों में कई तरह की
ग्रंथियां आ गयी होगी। मैं उनका पक्ष कभी नहीं लूंगा, जो गलत है वो गलत। मगर इस
देश में हालात बहुत भयावह है। इन्हें समझना होगा। इतनी संवैधानिक सुरक्षा के
बावजूद वे अपने अधिकारों के लिए लड़ना तक नहीं सिख पाए अभी तक। देश के सर्वांगीण
विकास में समाज के हर तबके का विकास जुड़ा हुआ है।
आरक्षण एक बड़ा मसला है इस
पर फिर मेरा यही मानना है कि बहस चलते रहनी चाहिए। बहस की सबसे न्यूनतम शर्त यही
है कि हम अपनी बात बहुत सहजता से और तार्किक ढंग से रखें बस। यह भी एक बड़ा सच है कि
वंचितों को इस सुरक्षा कवच से बाहर निकलकर खुद को इतना सक्षम बनाकर और नौकरी में
आने के बाद अपनी प्रतिभा का अतिरिक्त प्रदर्शन करके बता देना चाहिए कि प्रतिभा
किसी की जाति देखकर पैदा नहीं होती। अब ये लगने लगा है कि दलितों को ज्यादा बेहतर
प्रदर्शन करके अपनी योग्यता का शानदार परिचय देना चाहिए। और ऐसे सपने देखने चाहिए
अगर संभव हो तो कि वे बिना आरक्षण के इस समाज में एक मुकाम हासिल करके दिखाएं। हे
आरामदायक स्थिति में पहूंच चुके दलित मित्रो, आपकी छोड़ी हुई एक सीट किसी और को
संबल देगी।
कुछ और बातें जैसे डॉक्टरी
और इंजीनियरिंग में प्रवेश के बाद हर साल या सेमेस्टर पास करने में आरक्षण नहीं
होता। वहां सभी के लिए एक ही तरह का पासिंग मार्क्स फाइनल किया हुआ है। जो लोग कमज़ोर
बुद्धि वाले के चयन से इतने परेशान हैं तो यह बता दें कि इतनी सदियों तक एक ही तरह
के लोग सत्तासीन और अध्यापकी करते रहे फिर हमारा अधिसंख्य समाज आज तक अनपढ़ और
वंचित की ज़िंदगी क्यों जी रहा है? उन्होंने अब तक क्या किया? एक ज़माने में ग्रामीण
परिवेश में पढ़ने के मेरिट में अंक मिलते थे और लोग अध्यापक की नौकरी लगते थे। वो
आरक्षण एकदम सही था। गाँव इतने पिछड़े हुए थे और हैं कि हम शहरवासी प्रतियोगियों की
क्या बराबरी करते? अवसरों और सुविधाओं में जब
तक अन्तर रहेगा यह अंतर्विरोध जारी रहेगा। इधर उधर भटकने से क्या फायदा। पढ़ो, पढ़कर जवाब दो। हिस्सेदारी करो। जो समाज जितना ज्यादा पिछड़ा है उसे
उतनी ज्यादा मेहनत की ज़रूरत है। हे वंचितो, लोग आपको कई लफड़ों में उलझाने के लिए
तैयार बैठे होंगे। चूको मत। निशाने पर ध्यान केन्द्रण करो। करिअर बनाओ। उलझो मत। आगे
बढ़ो। तभी अम्बेडकर की आत्मा को शांति मिलेगी। जाति देखकर जब हम खुद के साथ भेदभाव
पसंद नहीं करते तो हम खुद क्यों किसी की जाति से ही उसके विचार का पता लगा लेते
हैं और उन्हें उधेड़ने लग जाते हैं।हमें भी अपने खांचे में बदलाव करना होगा।
दूसरे वर्ग को कोसने के
बजाय कानूनी लड़ाइयां लड़ो। अपने अधिकार को जानो। अपने आपको सक्षम बनाओ। किसी के
सहारे के भरोसे रहना बंद करो। अंतोगत्वा एक और सच उगल देता हूँ कि आरक्षण दलितों
को भीतर से कमज़ोर ही बनाए रखना चाहता है। हमें इसका यथासंभव कम से कम इश्तेमाल
करना पड़े,ऐसी कोशिश करें। आओ खुद को मजबूत करें। समाज को जवाब दें।
सन 2000 से अध्यापकी। 2002 से स्पिक मैके आन्दोलन में सक्रीय स्वयंसेवा। 2006 से 2017 तक ऑल इंडिया रेडियो,चित्तौड़गढ़ से अनौपचारिक जुड़ाव। 2009 में साहित्य और संस्कृति की ई-पत्रिका अपनी माटी की स्थापना। 2014 में 'चित्तौड़गढ़ फ़िल्म सोसायटी' की शुरुआत। 2014 में चित्तौड़गढ़ आर्ट फेस्टिवल की शुरुआत। चित्तौड़गढ़ में 'आरोहण' नामक समूह के मार्फ़त साहित्यिक-सामजिक गतिविधियों का आयोजन। कई राष्ट्रीय सांस्कृतिक महोत्सवों में प्रतिभागिता। अध्यापन के तौर पर हिंदी और इतिहास में स्नातकोत्तर। 'हिंदी दलित आत्मकथाओं में चित्रित सामाजिक मूल्य' विषय पर मोहन लाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर से शोधरत। प्रकाशन: मधुमती, मंतव्य, कृति ओर, परिकथा, वंचित जनता, कौशिकी, संवदीया, रेतपथ और उम्मीद पत्रिका सहित विधान केसरी जैसे पत्र में कविताएँ प्रकाशित। कई आलेख छिटपुट जगह प्रकाशित।माणिकनामा के नाम से ब्लॉग लेखन। अब तक कोई किताब नहीं। सम्पर्क-चित्तौड़गढ़-312001, राजस्थान। मो-09460711896, ई-मेल manik@apnimaati.com
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