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13 अगस्त, 2014

'शोध दिशा' के फेसबुक कविता विशेषांक में छपी कवितायेँ

आदिवासी

ये सातवें दिन के हाट भी गज़ब हैं
हाँ इकलौते बड़े ज़रिये हैं
मिलने-मिलाने
गीत गाते दुःख बिसराने के
रोचक साधन हैं खिलखिलाने के
साधनहीनों का मन बहलाने के
ज़रूरी साधन है हाट

मुलाकातों की ये पंचायत
देवीय उपहार सी लगती है
उन तमाम सांवले वनवासियों को
दे जाती है स्वप्न
सप्ताह काटने के लिए
थमा जाती है एक विषय
बतियाने-गपियाने का

उस दिन वे भूल जाते हैं
दम तोड़ते जंगल का रोना
नदी के पानी में फेक्ट्री के गंदे निकास का दर्द
घरों में भूखे मरते ढिंकड़े-पूंछड़े
भूल जाते हैं
बाँध बनने से खाली होती
उनकी अपनी बस्तियों की कराह

क्रोध को मुठ्ठियों में भींचे युवाओं को
उस रात
नज़र नहीं आते
थोक के भाव आरा मशीनों में कटते हुए पेड़
असल में
उत्साह के मारे थकी देह जल्दी सो जाती है
उस रात

उन्हें उस रात याद नहीं आता
पथरीली शक्ल का ठेकेदार
जो कम तोलकर कम देता है
मौड़े, अरण्डी, कणजे, तेंदू पत्तों का मोल
मजबूरी में मजूरी का आभास
खो जाता है उस रात

उन्हें सिर्फ याद रहता है क्रम
हाट के लगने और फिर उठने का
वे जानते हैं
उन्हें सोमवार को जाना है पृथ्वीपुरा
चूक गए तो मंगल का दिन घंटाली जाना पड़ेगा
ये भी न हुआ तो दूजे इलाके में
दानपुर का बुधवारिया हाट तो है ही

पढ़े लिखे स्कूली बच्चे तक जानते हैं
गुरुवार को अरनोद में मेला लगना है
औरतें शुक्रवार की बाट में हैं जहां
तेजपुर में वे गुदना गुदायेगी
उन्हें मालुम है
काजल,टिक्की और लिपस्टिक का
एक बाज़ार ज़रूर लगेगा
उनकी काली देह के सजने-संवरने के लिए

वही व्यापारी वही दुकाने
वही स्नेह वही उधारी की सामान्य शर्ते
इस तरह कट जाता है
सात दिन का इंतज़ार
विश्वास और पहचान के सहारे
फिर आ सजता है हाट

अरे हाँ विश्वास और भोलापन ही तो
इनके पास अवशेष है अब

शनि को सालमगढ़ और रवि को दलोट लगेगा
बिग बाज़ार की माफिक
उनकी दुनिया में एक मेला
जहां फिर से
सबकुछ बिकेगा
सब्जी भाजी से लेकर मायरे-मुंडन के सामान
शादी-मोसर से जुड़े कपड़े-लथ्थे
सब सब सब

सच बोलें तो
हाट से पैदा ये आनंद और उल्लास
इनकी किस्मत का अवशिष्ट है 
मुआफ़ करना
आपको कसम है
इनके इतने से उल्लास पर
नज़र पर मत लगाना
आपकी अब तक की बाकी करतूतों की तरह
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पहचान

बनते-बिगड़ते हुए 
सवेरे-सवेरे ज़बान से फिसली 
एक अधबनी कविता
ढूंढ रहा हूँ

भरी दुपहरी तक 
नहीं मिली
शाम तक तो
रहूंगा बेताब
उसे ढूंढ लेने की त्वरा
खुद में रखूंगा बरक़रार
कई महीनों तक 

मन है कि ठिठका बैठा है 
कविता मिलेगी या नहीं
आमुख और अंतरे
पहचाने जायेंगे कि नहीं मुझसे
इस बुढापे में

या कि फिर 
ग़ुम हो जायेगी ये कविता भी 
शहर आई आदिवासी लड़कियों की पहचान 
की तरह

माणिक 
अब तक यात्रा,मधुमतीकृति ओर परिकथा, वंचित जनता, कौशिकी, संवदीया , उम्मीद और पत्रिका सहित विधान केसरी  जैसे पत्र  में कविताएँ प्रकाशित। कई आलेख छिटपुट जगह प्रकाशित। माणिकनामा के नाम से ब्लॉग और माणिक की डायरी  का लेखन। अब तक कोई किताब नहीं, कोई बड़ा सम्मान नहीं। सम्पर्क-चित्तौड़गढ़-312001, राजस्थान। मो-09460711896, ई-मेल manik@apnimaati.com  )

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