अरसा हो गया
अरसा हो गया है
ठीक से मुस्कराए
जी-भर हँसे
किसी बच्चे से बतियाते हुए तुतलाए,हकलाए
यादों में इत्मीनान से लौटे हुए
अरसा हो गया है
अरसा हो गया हमें
नारे नहीं लगाए सत्ता के विरोध में
नहीं छापे कोई पोस्टर
मजदूर साथियों से नहीं की
कोई ज़रूरी अपील
घंटाभर बैठ तसल्ली से नहीं की किसी बूढ़े की संगत
देश-समाज का आगा-पीछा विचारे
कितना वक़्त हो गया है
हमविचारों के बीच
छेड़े कोई ताज़ा सवाल
आपसी सलाह-मशवरा किए किसी मुद्दे पर
एकजुट हुए काफी वक़्त गुज़र गया
तर्कों में उलझते हुए किसी मुकाम पहूंचे
महीने हो गए
ठीक याद नहीं
कब पढ़ा कोई क्रांतिकारी चिट्ठा
आपसी संवाद कब किया
कब दिया सामूहिक ज्ञापन
हाल के बीते का एक भी धरना और भाषण याद नहीं
बहुत मौके गुज़र जाने दिए यूं ही
कोई गोष्ठी आकार नहीं ले पाई इधर
वजूद पर प्रश्न चिह्न सरीखे ये तमाम सवाल
मुझे चिढ़ाते है इन दिनों
ऐसा ही है अगर तुम्हारा भी हाल तो
ए दोस्त
आओ खुद में आग लगाए
जले हुए अरसा हो गया
बची हुई आँच
ख़रीदे जा रहे थे खेत
फसलें रोंदी जा रही थी
किसान आँखें मसल-मसल कर
गुहार लगाते रहे धरनों पर
औरतें बिना रुके रोती रहीं
जवान छोरे बुढ़ाते रहे
हक की लड़ाई में
उछालते रहे नारे उम्रभर आकाश में
देखते रहे
ईश्वर की बाट जोहते रहे
मदद की आस में
जानते हुए भी कि ईश्वर नहीं होता
एक भी उनकी तरफ नहीं था
न सरकार और न साहूकार
रेंगकर जीते रहे,हारकर मरते रहे
शवों में तब्दिलते उन अधेड़ों का
दर्ज नहीं हुआ कोई पंचनामा
इन तमाम बुरी खबरों के बीच
कुछ ही अच्छी खबरें थी
कि कवि ज़िंदा था
कविता लड़ रही थी
मुद्दे अपने तीसरे के बाद भी गरम थे
समाधान की तरफ ताकते मुद्दे साफ़ दिख रहे थे
पसलियों के पतलाने की रफ़्तार के साथ उभरते हुए
चिल्लाने की आँच बाकी थी उनमें
अब भी एक अच्छी खबर की तरह
अरसा हो गया है
ठीक से मुस्कराए
जी-भर हँसे
किसी बच्चे से बतियाते हुए तुतलाए,हकलाए
यादों में इत्मीनान से लौटे हुए
अरसा हो गया है
अरसा हो गया हमें
नारे नहीं लगाए सत्ता के विरोध में
नहीं छापे कोई पोस्टर
मजदूर साथियों से नहीं की
कोई ज़रूरी अपील
घंटाभर बैठ तसल्ली से नहीं की किसी बूढ़े की संगत
देश-समाज का आगा-पीछा विचारे
कितना वक़्त हो गया है
हमविचारों के बीच
छेड़े कोई ताज़ा सवाल
आपसी सलाह-मशवरा किए किसी मुद्दे पर
एकजुट हुए काफी वक़्त गुज़र गया
तर्कों में उलझते हुए किसी मुकाम पहूंचे
महीने हो गए
ठीक याद नहीं
कब पढ़ा कोई क्रांतिकारी चिट्ठा
आपसी संवाद कब किया
कब दिया सामूहिक ज्ञापन
हाल के बीते का एक भी धरना और भाषण याद नहीं
बहुत मौके गुज़र जाने दिए यूं ही
कोई गोष्ठी आकार नहीं ले पाई इधर
वजूद पर प्रश्न चिह्न सरीखे ये तमाम सवाल
मुझे चिढ़ाते है इन दिनों
ऐसा ही है अगर तुम्हारा भी हाल तो
ए दोस्त
आओ खुद में आग लगाए
जले हुए अरसा हो गया
बची हुई आँच
ख़रीदे जा रहे थे खेत
फसलें रोंदी जा रही थी
किसान आँखें मसल-मसल कर
गुहार लगाते रहे धरनों पर
औरतें बिना रुके रोती रहीं
जवान छोरे बुढ़ाते रहे
हक की लड़ाई में
उछालते रहे नारे उम्रभर आकाश में
देखते रहे
ईश्वर की बाट जोहते रहे
मदद की आस में
जानते हुए भी कि ईश्वर नहीं होता
एक भी उनकी तरफ नहीं था
न सरकार और न साहूकार
रेंगकर जीते रहे,हारकर मरते रहे
शवों में तब्दिलते उन अधेड़ों का
दर्ज नहीं हुआ कोई पंचनामा
इन तमाम बुरी खबरों के बीच
कुछ ही अच्छी खबरें थी
कि कवि ज़िंदा था
कविता लड़ रही थी
मुद्दे अपने तीसरे के बाद भी गरम थे
समाधान की तरफ ताकते मुद्दे साफ़ दिख रहे थे
पसलियों के पतलाने की रफ़्तार के साथ उभरते हुए
चिल्लाने की आँच बाकी थी उनमें
अब भी एक अच्छी खबर की तरह
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